आज सुबह से ही ना जाने क्यूँ जी कुछ भारी-भारी सा लग रहा था. आठ घंटे की बेखलल नींद, सुबह माँ के हाथ की गर्म चाय, दिसम्बर की गुनगुनी धूप, कुछ भी अच्छे नहीं लग रहे थे. कुछ हड़बड़ाहट, कुछ बेचैनी ,कुछ अनमनापन और कुछ जाने क्या था मन में...शायद प्राइवेट नौकरी करने की ये चंद सौगातें मोटी तनख्वाह के साथ में बिन बुलाये ही आ जाती जाती हैं.
बाबूजी जो सुबह ६ बजे से ही अखबार के इन्तेज़ार में दरवाजे पर खड़े रहते हैं आज एक बार भी अखबार के लिए नहीं आये. शायद कल की बात का बुरा मान गए थे, कल मैंने अखबार हाथ से लेते हुए बोला था कि आप तो दिन भर घर में ही रहते हैं, कभी भी अखबार पढ़ लीजियेगा.
माँ भी आज कमरे से बाहर नहीं निकली, या मैंने ही नहीं देखा. शायद एक उम्र के बाद बच्चे ...बूढ़े माँ-बाप और घर की दीवारों और खम्भों में फर्क नहीं कर पाते हैं. कहीं कुछ तो था, पर पूछने का जाने क्यों दिल नहीं कर रहा था.
तैयार होकर नाश्ते को बैठा तो देखा कि सब इन्तेज़ार में बैठे थे. जैसे बोलने की कुछ फीस पड़ रही थी सो बिना कुछ बोले जल्दी नाश्ता करके ऑफिस के लिए निकल लिया. महसूस भी नहीं हुआ कि निकलते समय घर से बिना बोले निकल आया हूँ. पिछले तीस सालों से घर से निकलते वक्त माँ-बाबूजी के पैर छूकर निकलने की एक रस्म सी बन गयी थी. गाड़ी स्टार्ट करते हुए याद आया आज वो रस्म भी टूट गयी. खैर,हमेशा की तरह आज फिर घर से निकलने में देर हो गयी थी..
तैयार होकर नाश्ते को बैठा तो देखा कि सब इन्तेज़ार में बैठे थे. जैसे बोलने की कुछ फीस पड़ रही थी सो बिना कुछ बोले जल्दी नाश्ता करके ऑफिस के लिए निकल लिया. महसूस भी नहीं हुआ कि निकलते समय घर से बिना बोले निकल आया हूँ. पिछले तीस सालों से घर से निकलते वक्त माँ-बाबूजी के पैर छूकर निकलने की एक रस्म सी बन गयी थी. गाड़ी स्टार्ट करते हुए याद आया आज वो रस्म भी टूट गयी. खैर,हमेशा की तरह आज फिर घर से निकलने में देर हो गयी थी..
मन का चोर बहाने ढूँढता है....कल से ऑफिस की बातें ही दिमाग में घूम रहीं थी...बॉस शुक्ल जी ,अकाउंटेंट शर्मा जी सब ही ताने देते रहते हैं, लेकिन कल बुरा मनोहर की बात का लगा था शायद, जो कि ऑफिस में चपरासी है, कल जब लंच करने को बैठा था तो वो तपाक से बोला, साहब, आपकी ही नौकरी बढ़िया है, ११ बजे ऑफिस आओ, १ बजे लंच करो और ६ बजे वापस. मैं उसकी बात को अनसुना करना चाहता था, मगर सबको जैसे एक मौका मिल गया था. ऐसा लगा जैसे मैं कोई शादी के लायक बेटी हूँ जिसको देखकर ताने देना पूरे समाज का अधिकार है. पूरे लंच के दौरान सिर्फ़ मेरी लेटलतीफ़ी के चर्चे थे.
खैर खाने के बाद उठा तो शुक्ला जी ने घेर लिया और बोले, ऐसे नहीं चल पायेगा सक्सेना जी, समय पर आया करिये या छुट्टी ले लिया करिये. पूरे ऑफिस का माहौल क्यूँ खराब करते हैं? बोलना चाहता था कि माँ की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती, ऊपर से सर्दी का मौसम. रात को कई बार उठना पड़ता है. कह दो दिया लेकिन सोचा वो माँ मेरी हैं तो इन्हें क्यूँ फरक पड़ेगा. कंपनी माँ के स्वास्थ्य के लिए पैसा थोड़े ही देती है. खैर ....मन मसोस कर जब सीट पर लौटा तो याद आया की आज कुछ रिपोर्ट पूरी करके भेजनी हैं. काम ख़त्म होते कब रात के ९ बज गए थे पता ही नहीं चला ...ऑफिस में मैं ही अकेला बचा था. मन तो किया कि शर्मा जी, शुक्ला जी को और खासकर उस मनोहर को बताऊँ की अब घडी कहाँ गयी, अब ऑफिस का माहौल नहीं खराब हो रहा है......
खैर सर्दी की रात थी कोहरा ज्यादा था तो कंप्यूटर बंद करके, ऑफिस से निकला तो याद आया कि माँ की दवाएं दो दिन से खत्म हो गयी हैं. सोचा रास्ते में कहीं से ले लूँगा... गाड़ी चलाकर रेडियो ऑन किया तो ऍफ़ ऍम पर पुराने गाने आ रहे थे, रास्ते भर ‘ मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ सुनते सुनते पता ही नहीं चला कब घर पहुँच गया.... पहुँचा तो याद आया कि दवाइयाँ लेना तो फिर भूल गया.... पर शायद बहाने देते-देते आदत सी ही पड़ गयी थी, चार सीढियां चढ़ते चढ़ते दिमाग में ६ बहाने थे....सोचा ... कुछ भी बता दूँगा. घंटी बजायी, २ मिनट में फिर घंटी बजायी, कोई नहीं निकला.... झुंझलाहट होने लगी, लगातार घंटी पर ऊँगली दबाये रहा और बजाता रहा तो माँ ने दरवाज़ा खोला.
दरवाज़ा खुलते ही मन अपनी सारी कुंठा उन्ही पर उड़ेल दी... 'कान में रुई लगाकर बैठे रहते हो आप लोग, एक आदमी सुबह से काम से थककर आ रहा है, दरवाजा खोलते भी नहीं बनता है... और भी जाने क्या क्या ...माँ थोड़ी देर तक सुनती रही फिर बोली, 'बेटा खाना लगा दूँ....(शायद दुनिया भर की सारी माँओं को लगता है बच्चों की सारी समस्याओं का हल खाना खाना ही है ) और जाने क्यों इस बात ने गुस्से में घी का काम किया, सो कहा, "आपको भूख लगी है तो खा लीजिए, मैं एक दिन नहीं खाऊँगा तो मर नहीं जाऊँगा... कहने के बाद महसूस तो हुआ कि गलत बोल दिया है लेकिन आज शायद अहम भावनाओं पर भारी पड़ गया और मैं बिना कुछ सुने कहे अपने कमरे में चला गया.
पता नहीं माँ कितनी देर तक वही बैठी रही. शायद वो रो रही थी और मुझे आज कुछ जल्दी ही नींद आ गयी, या शायद मैं आज जल्दी सो जाना ही चाहता था कि माँ कहीं दवा के बारे में ना पूछ लें...
खैर सर्दी की रात थी कोहरा ज्यादा था तो कंप्यूटर बंद करके, ऑफिस से निकला तो याद आया कि माँ की दवाएं दो दिन से खत्म हो गयी हैं. सोचा रास्ते में कहीं से ले लूँगा... गाड़ी चलाकर रेडियो ऑन किया तो ऍफ़ ऍम पर पुराने गाने आ रहे थे, रास्ते भर ‘ मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ सुनते सुनते पता ही नहीं चला कब घर पहुँच गया.... पहुँचा तो याद आया कि दवाइयाँ लेना तो फिर भूल गया.... पर शायद बहाने देते-देते आदत सी ही पड़ गयी थी, चार सीढियां चढ़ते चढ़ते दिमाग में ६ बहाने थे....सोचा ... कुछ भी बता दूँगा. घंटी बजायी, २ मिनट में फिर घंटी बजायी, कोई नहीं निकला.... झुंझलाहट होने लगी, लगातार घंटी पर ऊँगली दबाये रहा और बजाता रहा तो माँ ने दरवाज़ा खोला.
दरवाज़ा खुलते ही मन अपनी सारी कुंठा उन्ही पर उड़ेल दी... 'कान में रुई लगाकर बैठे रहते हो आप लोग, एक आदमी सुबह से काम से थककर आ रहा है, दरवाजा खोलते भी नहीं बनता है... और भी जाने क्या क्या ...माँ थोड़ी देर तक सुनती रही फिर बोली, 'बेटा खाना लगा दूँ....(शायद दुनिया भर की सारी माँओं को लगता है बच्चों की सारी समस्याओं का हल खाना खाना ही है ) और जाने क्यों इस बात ने गुस्से में घी का काम किया, सो कहा, "आपको भूख लगी है तो खा लीजिए, मैं एक दिन नहीं खाऊँगा तो मर नहीं जाऊँगा... कहने के बाद महसूस तो हुआ कि गलत बोल दिया है लेकिन आज शायद अहम भावनाओं पर भारी पड़ गया और मैं बिना कुछ सुने कहे अपने कमरे में चला गया.
पता नहीं माँ कितनी देर तक वही बैठी रही. शायद वो रो रही थी और मुझे आज कुछ जल्दी ही नींद आ गयी, या शायद मैं आज जल्दी सो जाना ही चाहता था कि माँ कहीं दवा के बारे में ना पूछ लें...
सुबह उठा तो ग्लानि कुछ कम हो गयी थी हालाँकि अब भी कुछ दवा को लेकर शर्म थी, सो बिना किसी से बोले जल्दी जल्दी तैयार हुआ. आज पता नहीं माँ कुछ ज्यादा उदास दिख रही थीं. बाबूजी तो कभी भावनाओं को दिखाते नहीं है मगर मुझे पता था कि गुस्सा तो वो भी होंगे... पर सोचा, माँ बाप तो सबको माफ कर ही देते हैं... फिर भी यह नहीं सोच पा रहा था कि जो माफ करना चाहता भी हो और उससे कोई माफ़ी ना मांगे तो कैसा लगता होगा.... खैर ऑफिस टाइम पर पहुँचने की जल्दबाजी में जैसे तैसे थोड़ा नाश्ता किया और निकल लिया.
.. गाड़ी में बैठा तो सोचकर खुश था कि आज टाइम से पूरा दस मिनट पहले पहुँचा जाऊंगा.. ऑफिस के सामने गाड़ी पार्क करते वक़्त याद आया कि आज २६ है तो कल २५ रही होगी. माँ का तो जन्मदिन भी २५ को होता है. माँ ने बचपन में ही अपने माँ बाप को खो दिया था. शायद जन्मदिन क्या होता है ये वो कभी महसूस भी नहीं कर पाई थी.... सालों पूछने के बाद उन्होने यही बताया था कि स्कूल में २५ दिसम्बर की पैदाइश लिखी हुई है. मन भारी हो रहा था पर खुद को संभाला और सोचा आज शाम माँ को सरप्राइज दूँगा.
.. गाड़ी में बैठा तो सोचकर खुश था कि आज टाइम से पूरा दस मिनट पहले पहुँचा जाऊंगा.. ऑफिस के सामने गाड़ी पार्क करते वक़्त याद आया कि आज २६ है तो कल २५ रही होगी. माँ का तो जन्मदिन भी २५ को होता है. माँ ने बचपन में ही अपने माँ बाप को खो दिया था. शायद जन्मदिन क्या होता है ये वो कभी महसूस भी नहीं कर पाई थी.... सालों पूछने के बाद उन्होने यही बताया था कि स्कूल में २५ दिसम्बर की पैदाइश लिखी हुई है. मन भारी हो रहा था पर खुद को संभाला और सोचा आज शाम माँ को सरप्राइज दूँगा.
यही सब सोचते ऊपर पहुँचा तो शर्मा जी की ‘गुड मोर्निंग’ से चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी...सीना चौड़ा हुआ जा रहा था. समय से तीन मिनट पहले जो पहुँचा था. सबकी सीट पर जा जाकर मैंने भी आज गुड मोर्निंग बोला और मनोहर से तो एक चाय सीट पर पहुँचाने के लिए भी बोल आया....शायद इतने वक़्त तक चोरों की तरह ऑफिस में घुसते घुसते अपनी नज़र में भी गिरने लग गया था और आज टाइम पर पहुँच कर ऐसा लगा जैसे दुनिया ही जीत ली हो... काम सब जल्दी जल्दी खत्म करना था , इसी बीच बाबू जी का फ़ोन आया तो सोचा बस आज भी यूँही फ़ोन किया होगा कि बेटा कुछ खाया या नहीं, पता नहीं ये माँ बाप को बेटे के खाने के सिवा कुछ सूझता क्यों नहीं है, फ़ोन साइलेंट पर कर दिया और काम में जुट गया.... शाम से पहले ही काम ख़त्म भी कर लिया थ... बैग ठीक ६ बजे पैक किया और घर की ओर निकल लिया. आज रास्ते से दवाइयाँ भी लेनी थीं और माँ की मनपसंद मिठाइयाँ भी ...मिठाइयों के बारे में सोचते हुए याद आया कि बचपन में अपने चाचा जी के पास रहते हुए अक्सर माँ चाय की बची हुई उबली हुयी चायपत्ती खाती थीं, क्यूंकि वो मीठी लगती थी. और माँ की चाची जी चीनी का डब्बा अलमारी में रखती थी क्यूंकि उन्हें लगता था कि माँ घर की पूरी चीनी खा जाती हैं. और फिर याद आया कि कैसे मेरे बचपन में माँ, जो कि एक स्कूल में टीचर थीं, किस तरह स्कूल से लड्डू लेकर आती थीं....मैंने एक बार बचपन में पूछा था , " माँ, आपको लड्डू अच्छे नहीं लगते ? तो वो बोली , " बेटा, मेरा बचपन तो चला गया लेकिन तुम्हारा तो अभी भी है और हाँ, जब तुम बड़े हो जाना तो मेरे लिए लड्डू ले आया करना....यह कहते हुए माँ के चेहरे के भावव को याद करते, सोचते हुए आँखों की कोरें गीली हो गयीं.. फिर सोचा आज माँ से लिपट कर कल की बात के लिए माफी माँग लूँगा.....दवाइयाँ लेकर मिठाई की दुकान पर पहुँचा तो आज लड्डू ही लेने का मन किया. लड्डू लेकर आगे बढ़ा तो लगा कि माँ के लिए साड़ी ले लेता हूँ... मेरी याद में माँ ने आखरी नयी साड़ी तकरीबन १० साल पहले मौसी की शादी में खरीदी थी. वो भी उन्होंने सम्भाल कर रख रखी थी कि बहू को देंगीं...१०-१२ साड़ियां देखने के बाद १ साड़ी पसंद की ...मन बहुत खुश था, लग रहा था की आज तो माँ बहुत खुश होगीं और (जैसा वो हमेशा करती हैं) कल की बात भी भूल गयीं होंगीं.... गाड़ी में बैठने वाला ही था कि देखा ऑफिस से शर्मा जी की कॉल आ रही है.... उठाया तो वो कुछ घबरा के बोले कहाँ हैं आप? इससे पहले की मैं कुछ बोलता फोन कट गया था... बैटरी खत्म हो गई थी...मैंने भी सोचा कि आज जरूर कोई काम पड़ा होगा शर्मा जी को वरना कौन ऐसे याद करता है... मैंने गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ़ बढ़ गया...
घर पहुँचकर घंटी बजायी तो फिर किसी ने दरवाजा नहीं खोला... २-३ बार घंटी और बजायी फिर थोड़ी झुँझलाहट होने लगी... लेकिन मैंने आज सोच रखा था कि गुस्सा नहीं करना है सो २-३ बार फिर घंटी बजायी, दरवाजा फिर भी नहीं खुला तो चिंता होने लगी....बाहर आकर मैंने पडोसी मिश्राजी से पूछा कि तो पता चला कि माँ को दिल का दौरा पड़ गया है और उनको लेकर सब अस्पताल गए हैं.
पैर जाम हो गए थे, सर घूम रहा था और जबान सूखने लगी थी....गाड़ी चला कर किसी तरह अस्पताल पहुँचा तो पता चला माँ ICU में हैं...तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो सामने बाबूजी बैठे थे... मैंने पूछा , ये सब कैसे हुआ बाबू जी ....तो वो बोले की रात भर तुम्हारी माँ जाने क्यों सोयी नहीं थी और खाना भी नहीं खाया था और सुबह से ही सीने में दर्द की शिकायत कर रही थीं. जब दिक्कत ज्यादा बढ़ी तो तुम्हे फोन किया पर लेकिन तुम्हारा फ़ोन नहीं उठा ...ऑफिस में फोन करने पर पता चला कि तुम्हे निकले हुए देर हो गयी है. आधे घंटे इन्तेज़ार के बाद भी जब तुम नहीं आये तो हमने एम्बुलेंस बुलवाई...अब तो बस ईश्वर का सहारा है...
बाबूजी को मैंने कभी खुद पर नियंत्रण खोते नहीं देखा था, संभवतः आज यह हाथ से निकलती रेत की वेदना थी जिसको जितने तेजी से वो पकड़ने की कोशिश कर रहे थे लेकिन छूटती जा रही थी या खुद को अशक्त और मजबूर महसूस करने की पीड़ा .. एक अरसे बाद उनकी आँखें आज नम थीं. बाबूजी जिनको हमेशा मैं पत्थर से दिल का और मजबूत समझता था, उनको रोता देखकर ऐसा लगा मानों मेरी नींव ढह गयी हो . आंसुओं का जो सैलाब अभी तक रोका हुआ था.. बाबूजी की आँखों के बाँध के साथ टूट गया.
घर पहुँचकर घंटी बजायी तो फिर किसी ने दरवाजा नहीं खोला... २-३ बार घंटी और बजायी फिर थोड़ी झुँझलाहट होने लगी... लेकिन मैंने आज सोच रखा था कि गुस्सा नहीं करना है सो २-३ बार फिर घंटी बजायी, दरवाजा फिर भी नहीं खुला तो चिंता होने लगी....बाहर आकर मैंने पडोसी मिश्राजी से पूछा कि तो पता चला कि माँ को दिल का दौरा पड़ गया है और उनको लेकर सब अस्पताल गए हैं.
पैर जाम हो गए थे, सर घूम रहा था और जबान सूखने लगी थी....गाड़ी चला कर किसी तरह अस्पताल पहुँचा तो पता चला माँ ICU में हैं...तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो सामने बाबूजी बैठे थे... मैंने पूछा , ये सब कैसे हुआ बाबू जी ....तो वो बोले की रात भर तुम्हारी माँ जाने क्यों सोयी नहीं थी और खाना भी नहीं खाया था और सुबह से ही सीने में दर्द की शिकायत कर रही थीं. जब दिक्कत ज्यादा बढ़ी तो तुम्हे फोन किया पर लेकिन तुम्हारा फ़ोन नहीं उठा ...ऑफिस में फोन करने पर पता चला कि तुम्हे निकले हुए देर हो गयी है. आधे घंटे इन्तेज़ार के बाद भी जब तुम नहीं आये तो हमने एम्बुलेंस बुलवाई...अब तो बस ईश्वर का सहारा है...
बाबूजी को मैंने कभी खुद पर नियंत्रण खोते नहीं देखा था, संभवतः आज यह हाथ से निकलती रेत की वेदना थी जिसको जितने तेजी से वो पकड़ने की कोशिश कर रहे थे लेकिन छूटती जा रही थी या खुद को अशक्त और मजबूर महसूस करने की पीड़ा .. एक अरसे बाद उनकी आँखें आज नम थीं. बाबूजी जिनको हमेशा मैं पत्थर से दिल का और मजबूत समझता था, उनको रोता देखकर ऐसा लगा मानों मेरी नींव ढह गयी हो . आंसुओं का जो सैलाब अभी तक रोका हुआ था.. बाबूजी की आँखों के बाँध के साथ टूट गया.
लगा कि जैसे यह सफलता, शोहरत, इज्जत, दौलत सब बेमानी हैं... सब दुनियावी मेयार हैं... हम खुदको दूसरों की आँखों में देखते है, दूसरों के मुंह से सुनकर जानते समझते हैं और इसीलिए आज ये शायद कुदरत का मेरे मुह पर एक जोरदार तमाचा था....
डॉक्टर ने अंदर जाने की इज़ाज़त दी तो अंदर माँ के पास पड़े स्टूल पर बैठ गया... माँ को होश नहीं आया था ... माँ के पास ही बिस्तर पर सर रखकर सो गया ....
पता नहीं कितनी देर सोया होऊंगा पर जब आँख खुली तो महसूस हुआ माँ मुझको जगा देख , मुस्कुराते हुए बालों में हाथ फिरा रही है....पता नहीं इससे बड़ी खुशी जिंदगी में क्या हो सकती थी.... मैं बहुत कुछ आज माँ से कहना चाह रहा था, बहुत कुछ पूछना चाह रहा था. लेकिन फिर लगा अब माँ से भी क्या कहना सुनना क्योंकि माँ तो बिना कुछ कहे सब समझती है...जिसने अपनी कोख में 9 महीने लगातार अपने जिस्म के एक हिस्से सा महसूस किया हो....और उसके बाद बिना कुछ कहे बिना किसी शिकायत अब तक सब कुछ समझा हो उससे अब क्या ही कहना... अब न कुछ कहना चाहता था और न ही कुछ सुनना ... आँखें बंद करके मैं माँ से उसके आँचल में लिपटकर लेट गया....
आज मैं फिर से बच्चा हो गया था, आज फिर मुझे कोई चिंता नहीं थी... कोई डर नही था....बस था तो एक एहसास जो शब्दों में बाँध पाना शब्दों के भी बस का नहीं है क्योंकि ये एहसास वो है जो एक बेटे को अपनी माँ से लिपटकर उसके पास होकर ही महसूस हो सकता है ....
पता नहीं कितनी देर सोया होऊंगा पर जब आँख खुली तो महसूस हुआ माँ मुझको जगा देख , मुस्कुराते हुए बालों में हाथ फिरा रही है....पता नहीं इससे बड़ी खुशी जिंदगी में क्या हो सकती थी.... मैं बहुत कुछ आज माँ से कहना चाह रहा था, बहुत कुछ पूछना चाह रहा था. लेकिन फिर लगा अब माँ से भी क्या कहना सुनना क्योंकि माँ तो बिना कुछ कहे सब समझती है...जिसने अपनी कोख में 9 महीने लगातार अपने जिस्म के एक हिस्से सा महसूस किया हो....और उसके बाद बिना कुछ कहे बिना किसी शिकायत अब तक सब कुछ समझा हो उससे अब क्या ही कहना... अब न कुछ कहना चाहता था और न ही कुछ सुनना ... आँखें बंद करके मैं माँ से उसके आँचल में लिपटकर लेट गया....
आज मैं फिर से बच्चा हो गया था, आज फिर मुझे कोई चिंता नहीं थी... कोई डर नही था....बस था तो एक एहसास जो शब्दों में बाँध पाना शब्दों के भी बस का नहीं है क्योंकि ये एहसास वो है जो एक बेटे को अपनी माँ से लिपटकर उसके पास होकर ही महसूस हो सकता है ....
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