Tuesday, 17 November 2015

लाल किताब के टोटके

सुबह उठ कर सबसे पहले घर की मालकिन अगर एक
लोटा पानी घर के मुख्य द्वार पर डालती है तो घर
में लक्ष्मी देवी के आने का रास्ता खुल जाता हैं।
अगर आप चाहते हैं की घर में सुख शान्ति बनी रहे तो
हर एक अमावास के दिन घर की अच्छी तरह सफाई
करके (बेकार सामान घर में न रखें) कच्ची लस्सी का
छिट्टा देकर ५ अगरबत्ती जलाइए।
महीने में २ बार किसी भी दिन घर में उपला जलाकर
लोबान व गूगल की धुनी देने से घर में उपरी हवा का
बचाव रहता हैं तथा बीमारी दूर होती है।
आपके घर में अगर अग्नि कोण में पानी की टंकी रखी
हो तो घर में कर्जा व बीमारी कभी समाप्त नही
होती है इससे बचने के लिए इस कोने में एक लाल बल्ब
लगा दें जो हर वक्त जलता रहे।
नमक को कभी भी खुला न रखें।
घर में सुख-शान्ति न हो तो पीपल पर सरसों के तेल
का दीया जलाना और जला कर काले माह (उड़द )
के तीन दाने दीये में डालना चाहिए, ऐसा तीन
शनिवार शाम को करें।
दुर्घटना या सर्जरी का भय हो तो तांबें के बर्तन में
गुड़ हनुमान जी के मन्दिर में देने से बचाव होता है और
अगर सरसों के तेल का दीया वहीं जलाये और वहीं
बैठ कर हनुमान चालीसा पढ़े और हलवा चढाये तो
काफ़ी बचाव होता है, ऐसा चार मंगलवार रात्रि
करें।
बहन भाईओं से कोई समस्या हो तो सवा किलो गुड़
जमीन में दबाने से समझौता होता है, ऐसा मंगलवार
को करें।
बच्चों की पढ़ाई के लिए सवा मीटर पीले कपडें में २
किलो चने की दाल बांधकर लक्ष्मी-नारायण जी
के मन्दिर में चढाये, ऐसा पाँच शाम वीरवार को करें।
कमर, गर्दन में तकलीफ रहती हो तो दोनों पैरों के
अंगूठे में काला सफ़ेद धागा बांधें।
घर में पैसा रखने वाली अलमारी का मुंह उत्तर की
तरफ़ रखे, ऐसा करने से घर में लक्ष्मी बदती है।
किसी भी रोज़ संध्याकाल में गाय को कच्चा ढूढ़
मिटटी के किसी बर्तन में भरकर बाएँ हाथ से नज़र लगे
बच्चे के सर से सात बार उतारकर चौराहे पर रख आयें
या किसी कुत्ते को पिला दे, नज़र दोष दूर हो
जायेगा।
घर के किसी भी कार्य के लिए निकलते समय पहले
विपरीत दिशा में ४ पग जावें, इसके बाद कार्य पर चले
जाएँ, कार्य जरूर बनेगा।
परिवार में सुख-शान्ति और सम्रद्धि के लिए
प्रतिदिन प्रथम रोटी के चार बराबर भाग करें, एक
गाय को, दूसरा काले कुत्ते को, तीसरा कौए को
और चौथा चौराहे पर रख दें।
हल्दी की ७ साबुत गाठें ७ गुड़ की डलियाँ, एक रूपये
का सिक्का किसी पीले कपड़े में वीरवार को
बांधकर रेलवे लाईन के पार फेंक दें, फेंकते समय अपनी
कामना बोलें, इच्छा पूर्ण होने की सम्भावना हो
जायेगी।
घर में सुख-शान्ति के लिए मिट्टी का लाल रंग का
बन्दर, जिसके हाथ खुले हो, घर में सूर्य की तरफ़ पीठ
करके रखें, ऐसा रविवार को करें।
चांदी के बर्तन में केसर घोल कर माथे पर टीका
लगाना, सुख-शान्ति सम्रद्धि और प्रसद्धि देता है,
यह प्रयोग वीरवार को करें।
शादी न हो रही हो या पढ़ाई में दिक्कत हो तो
पीले फूलों के दो हार लक्ष्मी-नारायण के मन्दिर में
चढाये, आपका काम जरूर होगा, यह प्रयोग वीरवार
शाम को करें।
कंजकों को बुधवार के दिन साबुत बादाम, जो
मन्दिर के बाहर बैठीं हों, देना चाहिए इससे घर की
बीमारी दूर होती है।
अगर किसी को अपनी नौकरी में तबादले या
स्थानांतर को लेकर कोई समस्या है तो ताम्बे की
गडवी/ लोटे में लाल मिर्ची के बीज डालकर सूर्य
को चढाने से समस्या दूर होती है। सूर्य को यह जल
लगातार २१ दिनों तक चढाये।

अंग्रेजों ने भारत के वासियों को वेश्यावृत्ति के रास्ते पर धकेल।

अंग्रेजों ने हमें चारित्रिक रूप से, और नैतिक रूप से नीचा दिखाने के लिए, कमज़ोर बनाने के लिए, शराब के साथ एक काम और भी किया था। और उसमें भी हम भारतवासी काफी डूब गए हैं। और वह दूसरा काम यह था - भारत के वासियों को वेश्यावृत्ति के रास्ते पर धकेलना। बहुत खराब काम यह अंग्रेजों ने किया था।
आपको सुनकर ताज्जुब होगा, कि 1760 के पहले हिंदुस्तान में कोई शराब नहीं पीता था, ऐसे ही, 1760 के पहले के जो दस्तावेज़ हैं, रिकॉर्ड हैं, वे बताते हैं कि इस देश में कोई वेश्याघर नहीं था, वेश्यालय नहीं था। पूरे हिन्दुस्तान में ! ये अँगरेज़ थे जिंहोंने सबसे पहला वेश्यालय खोल सन 1760 में प्लासी के युद्ध के बाद कलकत्ते में। कलकत्ता में एक बहुत बदनाम इलाका कहा जाता है, जिसको सरकार रेड लाइट एरिया कहती है, और उसका नाम है सोनागाची। यह सोनागाची का रेड लाइट एरिया है - आपको सुनकर बहुत अफ़सोस होगा, दुःख होगा - यह अंग्रेजों का बसाया हुआ है, और अंग्रेजों का बनाया हुआ है। सन 1760 से पहले देश की किसी भी गाँव में, किसी नगर में वेश्याघर नाम की कोई भी चीज़ नहीं हुआ करती थी। तो आप बोलेंगे - मुस्लिम शासकों के ज़माने में क्या होता था? जब मुग़ल सम्राट इस देश में होते थे, मुग़ल शासक इस देश में होते थे, मुस्लिम धर्म को मानने वाले शासक इस देश में होते थे, तब क्या होता था? मुस्लिम शासकों के ज़माने में, सात सौ साल तक इस देश में, एक भी वेश्यालय नहीं बना, एक भी वेश्याघर नहीं बना। कुछ एक-दो मुस्लिम शासलों ने, जो कि अपवाद माने जाते हैं, जिनको उनके धर्म वाले भी गालियाँ देते हैं, एक ग़लत काम शुरू किया था - माताओं, बहन, बेटियों को घरों में से उठा लेना और ज़बरदस्ती उनको एक महल में रखना, उस महल का नाम हरम होता था। उस हरम में, मुस्लिम शासक अपने आमोद-प्रमोद के लिए, समय गुजारने के लिए, माताओं, बहन, बेटियों का नाच वगैरह कराया करते थे। तो, यह कुछ मुस्लिम शासकों ने किया, लेकिन वेश्यालय और वेश्याघर इस हिंदुस्तान में कभी नहीं बना।
आप बोलेंगे - पुराने ज़माने में तो हमारे देश में, हमने इतिहास में पढ़ा है, कुछ उपन्यास भी पढ़े हैं। हो सकता है आपने एक उपन्यास पढ़ा हो अपने जीवन में - वैशाली की नगर वधू। सम्राट अशोक के ज़माने की बात है, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य के ज़माने की बात है, कि नगर वधू हुआ करती थी। हाँ, उस ज़माने में नगर वधू हुआ करती थी। लेकिन उसका काम वेश्या के काम से बिलकुल अलग होता था। नगर वधु जो होती थी, वह पूरे नगर की कोई सम्मान और इज्ज़त वाली कोई मां और बहन हुआ करती थी, और नगर वधु के शरीर को कोई भी पुरुष चाहे, तो अपनी वासना का शिकार नहीं बना सकता था। और नियम और क़ानून ऐसे थे कि नगर वधू के शरीर को कोई छू भी नहीं सकता था। आप बोलेंगे - फिर यह नगर वधू होती किसलिए थी? यह नगर वधू हुआ करती थी, समाज के लोगों को संगीत की तालीम देने के लिए, शिक्षा देने के लिए। जैसे, नृत्य सिखाने के लिए। जैसे गायन सिखाने के लिए। जैसे वाद्य सिखाने के लिए। वह संगीत की कला में बहुत निपुण कलाकार हुआ करती थी, और उनके द्वारा संगीत कला का शिक्षण और प्रशिक्षण का काम चला करता था। सम्राट अशोक के ज़माने में, सम्राट चन्द्रगुप्त के ज़माने में, सम्राट हर्षवर्धन के ज़माने में, सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के ज़माने में, जितने भी भारत में चक्रवर्ती सम्राट रहे हैं, उनके ज़माने जो नगर वधुएँ हुआ करती थीं, वे संगीत का शिक्षण और प्रशिक्षण देने वाली उच्च, इज्ज़तदार, बहुत रौबदार महिलायें हुआ करती थीं। वे अपने शरीर का सौदा करने वाली सामान्य वेश्याएं नहीं हुआ करती थीं।
तो, नगर वधू एक अलग बात थी, हरम में महिलाओं का रहना बिलकुल अलग बात थी। अंग्रेजों ने क्या किया - भारत वासियों के चरित्र को पूरी तरह ख़त्म कर देने के लिए सबसे पहली बार एक वेश्याघर खोल दिया और वह वेश्याघर सोनागाची का, कलकत्ता का वेश्याघर बन गया। अंग्रेजों ने वहां क्या किया - 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद रोबर्ट क्लाइव ने कलकत्ता को लूटा, इतिहास में आपने पढ़ा होगा, न सिर्फ कलकत्ता के धन संपत्ति को लूटा, बल्कि जिन घरों में वह गया, उन घरों की माताओं, बहन, बेटियों की इज्ज़त और आबरू को भी लूटा। और ऐसे सैंकड़ों घर थे जहां अँगरेज़ घुस गए, और उनहोंने हमारी मां, बहन बेटियों की आबरू को तार-तार कर दिया। फिर उन मां बहन, बेटियों का समाज में कोई रखवाला नहीं रहा। घर वालों ने उनको निकाल दिया, समाज ने उनको तिरस्कृत कर दिया और अंग्रेजों ने उन की इज्ज़त से खिलवाड़ किया। तो ऐसी मां, बहन, बेटियों को पकड़ पकड़ कर अंग्रेजों ने वेश्या बना दिया और नियमित रूप से उनके यहाँ अँगरेज़ सैनिक अपनी वासना की शांति के लिए, अपनी भूख की शांति के लिए, शारीर वासना की शांति के लिए जाया करते थे। और, धीरे-धीरे यह वेश्याघर कलकत्ता से आगे बढ़ कर भारत के दूसरे नगरों में फैलते चले गए। अंग्रेजों ने जहां जहां कब्ज़ा किया, जैसे कलकत्ता में, जैसे पूना में, जैसे पटना में, जैसे दिल्ली में, जैसे मुंबई में, मद्रास में, बगलौर में, हैदराबाद में, सिकंदराबाद में, ऐसे 350 बड़े शहरों में अंग्रेजों ने कब्ज़ा करके अपनी छावनियां बनायीं, और हर छावनी में अंग्रेजों ने एक-एक वेश्याघर बना दिया।
पहले क्या होता था - इन छावनी में दूसरे देशों से गुलाम बनाकर लायी लडकियां रखी जाती थीं। फिर भारत की मां , बहन, बेटियाँ जिनकी इज्ज़त अँगरेज़ तार-तार करते थे, उनको रखवाना शुरू किया। और धीरे-धीरे यह काम बढ़ता गया, और बहुत दुःख और अफ़सोस की बात है कि हज़ारों-हज़ारों मां, बहन, बेटियों को अपनी इज्ज़त गंवा कर, अपनी अस्मत गंवा कर, अंग्रेजों की इस क्रूरता का शिकार होना पडा, अंग्रेजों की पिपासा का शिकार होना पडा, और उनको मजबूरी में यह वेश्या- धर्म अपनाना पडा। परिणाम उसका क्या हुआ - ऐसी वेश्याओं की संख्या बढती चली गयी, और वेश्याघरों की भी संख्या बढती चली गयी।
अफ़सोस है के अँगरेज़ चले गए 15 अगस्त 1947 को, तो वेश्यावृत्ति ख़त्म होनी चाहिए थी। अंग्रेजों के जाने के बाद यह ग़लत काम इस देश में बंद होना चाहिए था, क्योंकि अंग्रेजों ने अपने शरीर की पिपासा को शांत करने के लिए यह दुष्कर्म शुरू किया था, तो अंग्रेजों के जाने के बाद इसे क्यूं चलते रहना चाहिए ?
लेकिन बहुत दुःख और अफ़सोस की बात है, कि अंग्रेजों के जाने के बासठ साल के बाद भारतीय लोगों के नैतिक और चारित्रिक पतन करने वाला यह वेश्यावृत्ति का काम और तेज़ी से बढ़ गया है, और तेज़ी से फल-फूल रहा है, और ज्यादा पैमाने पर वेश्याघर खुल रहे हैं, और ज्यादा पैमाने पर हमारी मां, बहन, बेटियों को मजबूरी में इस व्यापार में धकेला जा रहा है। आंकड़ों में अगर मैं बात करूं तो, आपको सुनकर हैरानी होगी, 1760 में अंग्रेजों ने जो पहला वेश्याघर खोला था उसमें 200 के लगभग वेश्याएं हुआ करती थीं। अब आजादी के बासठ साल के बाद इस देश में, अंग्रेजों के जाने के बाद जब काले अंग्रेजों का शासन आगया है, अर्थात भ्रष्ट भारतीयों का शासन आगया है, तो सरकार के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 20 लाख 80 हज़ार माताएं, बहनें वेश्यावृत्ति के काम में लग गयी हैं। अंग्रेजों के पहले, या अंग्रेजों के समय में, 200 माताएं, बहनें मुश्किल से इस काम में थीं। अब अंग्रेजों के जाने के बासठ साल के बाद बीस लाख अस्सी हज़ार माताएं, बहनें इस वेश्यावृत्ति के काम में हैं।
औत गैर-सरकारी आंकड़ों की अगर बात की जाए, जो संस्थाएं वेश्याओं के उद्धार के लिए काम करती हैं, वेश्याओं को इस वेश्यावृत्ति से बाहर निकालने के लिए जो संस्थाएं भारत में काम करती हैं उनके आंकड़ों को अगर मैं आपको बताऊँ, तो उनका कहना है कि भारत में करीब एक करोड़ पचास लाख से ज्यादा माताएं, बहनें, जिनको मजबूरी में यह वेश्यावृत्ति का काम करना पड़ रहा है।
उनकी मजबूरी क्या है - एक मजबूरी है उनकी सबसे बड़ी कि उनका पति शराबी है। एक मजबूरी दूसरी उनकी यह कि उनका पति उनको मारता-पीटता है। आप जानते हैं, हमारे देश की मां, बहन, बेटियों के साथ घरेलू हिंसा बहुत बड़े पैमाने पर होती है। पति अगर शराबी हो जाये तो पत्नी को पीटता है, और इतना पीटता है कि पत्नी घर छोड़कर भागने के लिए विवश हो जाती है, और ज़्यादातर माताएं और बहनें जब पत्नी के रूप में घर छोड़ने को विवश हो जाती हैं, तो वे जाने- अनजाने वेश्याघर में पहुँच जाती हैं, और हमारे देश में एक करोड़ पचास लाख माताएं और बहनें, जो गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार वेश्यावृत्ति के काम में लगी हुई हैं, उनमें से 34% माताएं, बहनें ऐसी हैं जो अपने शराबी पति के दुष्कर्म के चलते, पति से मार खाते-खाते, पिटते-पिटते, परेशान होकर, मजबूर होकर घर छोड़कर भागी हैं और इस काम में लग गयी हैं।
इसका मतलब - उन्होंने अपनी इच्छा से यह काम नहीं स्वीकार किया है। इसका मतलब - उन्होंने अपनी सद्भावना से अपने आप को इस काम में नहीं लगाया है। उनकी एक बहुत बड़ी मजबूरी है, जिसने उनको मजबूर किया है इस काम में लगने के लिए। और इस से भी ज्यादा दुःख की बात है, कि इन डेढ़ करोड़ माताओं, बहनों में, 18 साल से कम उम्र की माताओं, बहनों की संख्या 30% से ज्यादा है। 18 साल से कम उम्र की बहनें, बेटियाँ 30 प्रतिशत से ज्यादा हैं, जो इस वेश्यावृत्ति के रैकेट में धकेली गयी हैं। आपको मालूम है, कि यह बहुत बड़ा एक रैकेट चलता है। उड़ीसा में काफी ग़रीबी वाला इलाका है। हिंदुस्तान के सबसे ग़रीब इलाकों में कालाहांडी, हिंदुस्तान के सबसे ग़रीब इलाकों में बोलांगीर, हिंदुस्तान के सबसे ग़रीब इलाकों में ढेंकानाल, आदि जिले हैं। आपको पता है - हिन्दुस्तान के सबसे ग़रीब जिलों में से छः जिले उड़ीसा में ही पड़ते हैं। तो वहां क्या होता है - ग़रीबी के कारण कोई भी बाप, कोई भी मां, अपनी बेटी और बेटे को बेच देने के लिए मजबूर होते हैं। बेटी बिक जाती है, तो वेश्याघर में पहुँच जाती है। बेटा बिक जाता है तो किसी के घर में नौकर बनकर पहुँच जाता है। तो उड़ीसा के ग़रीबी वाले इलाके से, झारखंड के ग़रीबी वाले इलाके से, बंगाल के ग़रीबी वाले इलाके से, आसाम के ग़रीबी वाले इलाके से, और उत्तर-पूर्व के ग़रीबी वाले इलाके से, और भारत के अन्य ग़रीबी वाले इलाकों से, मां, बहन, बेटियों को मजबूरी में जो माता, पिता बेच रहे हैं, और दलाल लोग उनको खरीद कर वेश्याघरों में लाकर डाल रहे हैं, यह दूसरा बड़ा दुश्चक्र है जो हमारे देश में यह चल रहा है।
और एक तीसरा बड़ा दुश्चक्र जो हमारे देश में है, कि बहुत सारी माता, बहन, बेटियाँ जिनको पैसे की इतनी ज्यादा आकांक्षा हो गयी है, कि थोड़े से पैसों में उनका गुज़ारा नहीं चलता - उनको बहुत ज्यादा पैसा चाहिए अपना जीवन चलाने के लिए, बहुत ज्यादा पैसा चाहिए खर्च चलाने के लिए, जिनके खर्च हज़ार, दो हज़ार, पांच हज़ार में पूरे नहीं होते, जिनके रोज़-मर्रा के खर्च हज़ारों में होते हैं, दस-पंद्रह-बीस हज़ार से कम में जिनका जीवन नहीं चल सकता, ऐसी मां, बहन, बेटियों ने इच्छा के साथ इस पेशे में अपने को डाल दिया है, और हम उनको एक अंग्रेजी शब्द से संबोधित करते हैं - कॉल गर्ल। ये कॉल गर्ल वो बेटियाँ हैं, वो बहनें हैं, जो अपनी इच्छा से इस 'बिज़नेस' में आई हैं, और मात्र पैसे के लिए अपने शरीर की नुमाईश करके, अपने शरीर को बेच कर इस काम में लगी हुई हैं।
तो तीन स्तर पर यह दुष्कर्म इस देश में चल रहा है, और इस देश के करोड़ों लोगों की नैतिकता और चरित्र को तार-तार कर दिया है। पहले वेश्याघरों में अँगरेज़ सैनिक जाया करते थे अपने शरीर की आग शांत करने लिए, अब उन्हीं वेश्याघरों में हमारे भारतवासी जा रहे हैं, शरीर की आग शांत करने लिए। और जो जा रहे हैं, वे चरित्र और नैतिकता में गिरते ही जा रहे हैं, डूबते ही जा रहे हैं। उनके पैरों में इतनी ताक़त नहीं है, उनके संकल्प में इतना दम नहीं है, कि समाज के दूसरे लोगों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकें।
तो यह दूसरा बड़ा दुश्चक्र हमारे देश में है - शराब के बाद वेश्यावृत्ति का, जिसमें हम काफी कुछ डूब गए हैं और करोड़ों भारतवासी इसमें शिकार हो गए हैं। तो मैं भारत स्वाभिमान की तरफ से एक अपील करना चाहता हूँ, कि हमको इस वेश्यावृत्ति को ख़त्म करने का आन्दोलन चलाना पड़ेगा - आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। जैसे शराब में डूबे हुए बीस बाइस करोड़ भारतवासियों को हम निकालना चाहते हैं, और उनको उच्च चरित्र और उच्च नैतिकता देना चाहते हैं, वैसे ही इस वेश्त्यावृत्ति के घृणित काम में डूबी हुई बहनों, बेटियों को निकालना है और इस घृणित काम में लगे हुए भाइयों को भी इसमें से बाहर निकालना है। और इसके लिए बड़े पैमाने पर, पूरी ताक़त से इस काम में लगना पड़ेगा। अपने जीवन के सामने एक उच्च आदर्श और रखें। पहला आदर्श अपने रखा है - व्यसनमुक्त भारतवर्ष बनाना, व्यसनमुक्त भारतीय समाज बनाना, तो दूसरा - वासनामुक्त भारत बनाना, वासनामुक्त भारतीय समाज बनाना। यह भी दूसरा बड़ा आदर्श हमें रखना पड़ेगा, तभी जाकर कोई बड़ी सामजिक क्रांति हम कर पायेंगे। आर्थिक क्रांति करना बहुत आसान काम है, राजनैतिक क्रान्ति करना भी बहुत आसान काम है, लेकिन सामजिक क्रांति करना, नैतिक क्रांति करना, चारित्रिक क्रांति करना बहुत मुश्किल काम होता है, बहुत ऊंचा काम होता है। इसको करने वाले भी विरले होते हैं, और करने वाले भी संख्या में बहुत कम होते हैं। तो आप सभी से मेरी विनम्र प्रार्थना है, विनम्र निवेदन है कि इस वासना में डूबे हुए भाइओं को, और इस वासना के कीचड में लिपटी हमारी मां, बहनों, बेटियों को जल्दी से जल्दी निकालने के लिए कमर कसकर अपने अपने स्थानीय स्तर पर अभियान चलायें, और इस अभियान को एक सार्थक और सफल मुकाम तक पहुंचाएं।
अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें:
http://www.youtube.com/watch?v=f16aL8Ne2gI
वन्देमातरम्

Friday, 6 November 2015

माँ

आज सुबह से ही ना जाने क्यूँ जी कुछ भारी-भारी सा लग रहा था. आठ घंटे की बेखलल नींद, सुबह माँ के हाथ की गर्म चाय, दिसम्बर की गुनगुनी धूप, कुछ भी अच्छे नहीं लग रहे थे. कुछ हड़बड़ाहट, कुछ बेचैनी ,कुछ अनमनापन और कुछ जाने क्या था मन में...शायद प्राइवेट नौकरी करने की ये चंद सौगातें मोटी तनख्वाह के साथ में बिन बुलाये ही आ जाती जाती हैं.
बाबूजी जो सुबह ६ बजे से ही अखबार के इन्तेज़ार में दरवाजे पर खड़े रहते हैं आज एक बार भी अखबार के लिए नहीं आये. शायद कल की बात का बुरा मान गए थे, कल मैंने अखबार हाथ से लेते हुए बोला था कि आप तो दिन भर घर में ही रहते हैं, कभी भी अखबार पढ़ लीजियेगा.
माँ भी आज कमरे से बाहर नहीं निकली, या मैंने ही नहीं देखा. शायद एक उम्र के बाद बच्चे ...बूढ़े माँ-बाप और घर की दीवारों और खम्भों में फर्क नहीं कर पाते हैं. कहीं कुछ तो था, पर पूछने का जाने क्यों दिल नहीं कर रहा था.
तैयार होकर नाश्ते को बैठा तो देखा कि सब इन्तेज़ार में बैठे थे. जैसे बोलने की कुछ फीस पड़ रही थी सो बिना कुछ बोले जल्दी नाश्ता करके ऑफिस के लिए निकल लिया. महसूस भी नहीं हुआ कि निकलते समय घर से बिना बोले निकल आया हूँ. पिछले तीस सालों से घर से निकलते वक्त माँ-बाबूजी के पैर छूकर निकलने की एक रस्म सी बन गयी थी. गाड़ी स्टार्ट करते हुए याद आया आज वो रस्म भी टूट गयी. खैर,हमेशा की तरह आज फिर घर से निकलने में देर हो गयी थी..
मन का चोर बहाने ढूँढता है....कल से ऑफिस की बातें ही दिमाग में घूम रहीं थी...बॉस शुक्ल जी ,अकाउंटेंट शर्मा जी सब ही ताने देते रहते हैं, लेकिन कल बुरा मनोहर की बात का लगा था शायद, जो कि ऑफिस में चपरासी है, कल जब लंच करने को बैठा था तो वो तपाक से बोला, साहब, आपकी ही नौकरी बढ़िया है, ११ बजे ऑफिस आओ, १ बजे लंच करो और ६ बजे वापस. मैं उसकी बात को अनसुना करना चाहता था, मगर सबको जैसे एक मौका मिल गया था. ऐसा लगा जैसे मैं कोई शादी के लायक बेटी हूँ जिसको देखकर ताने देना पूरे समाज का अधिकार है. पूरे लंच के दौरान सिर्फ़ मेरी लेटलतीफ़ी के चर्चे थे.
खैर खाने के बाद उठा तो शुक्ला जी ने घेर लिया और बोले, ऐसे नहीं चल पायेगा सक्सेना जी, समय पर आया करिये या छुट्टी ले लिया करिये. पूरे ऑफिस का माहौल क्यूँ खराब करते हैं? बोलना चाहता था कि माँ की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती, ऊपर से सर्दी का मौसम. रात को कई बार उठना पड़ता है. कह दो दिया लेकिन सोचा वो माँ मेरी हैं तो इन्हें क्यूँ फरक पड़ेगा. कंपनी माँ के स्वास्थ्य के लिए पैसा थोड़े ही देती है. खैर ....मन मसोस कर जब सीट पर लौटा तो याद आया की आज कुछ रिपोर्ट पूरी करके भेजनी हैं. काम ख़त्म होते कब रात के ९ बज गए थे पता ही नहीं चला ...ऑफिस में मैं ही अकेला बचा था. मन तो किया कि शर्मा जी, शुक्ला जी को और खासकर उस मनोहर को बताऊँ की अब घडी कहाँ गयी, अब ऑफिस का माहौल नहीं खराब हो रहा है......
खैर सर्दी की रात थी कोहरा ज्यादा था तो कंप्यूटर बंद करके, ऑफिस से निकला तो याद आया कि माँ की दवाएं दो दिन से खत्म हो गयी हैं. सोचा रास्ते में कहीं से ले लूँगा... गाड़ी चलाकर रेडियो ऑन किया तो ऍफ़ ऍम पर पुराने गाने आ रहे थे, रास्ते भर ‘ मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ सुनते सुनते पता ही नहीं चला कब घर पहुँच गया.... पहुँचा तो याद आया कि दवाइयाँ लेना तो फिर भूल गया.... पर शायद बहाने देते-देते आदत सी ही पड़ गयी थी, चार सीढियां चढ़ते चढ़ते दिमाग में ६ बहाने थे....सोचा ... कुछ भी बता दूँगा. घंटी बजायी, २ मिनट में फिर घंटी बजायी, कोई नहीं निकला.... झुंझलाहट होने लगी, लगातार घंटी पर ऊँगली दबाये रहा और बजाता रहा तो माँ ने दरवाज़ा खोला.
दरवाज़ा खुलते ही मन अपनी सारी कुंठा उन्ही पर उड़ेल दी... 'कान में रुई लगाकर बैठे रहते हो आप लोग, एक आदमी सुबह से काम से थककर आ रहा है, दरवाजा खोलते भी नहीं बनता है... और भी जाने क्या क्या ...माँ थोड़ी देर तक सुनती रही फिर बोली, 'बेटा खाना लगा दूँ....(शायद दुनिया भर की सारी माँओं को लगता है बच्चों की सारी समस्याओं का हल खाना खाना ही है ) और जाने क्यों इस बात ने गुस्से में घी का काम किया, सो कहा, "आपको भूख लगी है तो खा लीजिए, मैं एक दिन नहीं खाऊँगा तो मर नहीं जाऊँगा... कहने के बाद महसूस तो हुआ कि गलत बोल दिया है लेकिन आज शायद अहम भावनाओं पर भारी पड़ गया और मैं बिना कुछ सुने कहे अपने कमरे में चला गया.
पता नहीं माँ कितनी देर तक वही बैठी रही. शायद वो रो रही थी और मुझे आज कुछ जल्दी ही नींद आ गयी, या शायद मैं आज जल्दी सो जाना ही चाहता था कि माँ कहीं दवा के बारे में ना पूछ लें...
सुबह उठा तो ग्लानि कुछ कम हो गयी थी हालाँकि अब भी कुछ दवा को लेकर शर्म थी, सो बिना किसी से बोले जल्दी जल्दी तैयार हुआ. आज पता नहीं माँ कुछ ज्यादा उदास दिख रही थीं. बाबूजी तो कभी भावनाओं को दिखाते नहीं है मगर मुझे पता था कि गुस्सा तो वो भी होंगे... पर सोचा, माँ बाप तो सबको माफ कर ही देते हैं... फिर भी यह नहीं सोच पा रहा था कि जो माफ करना चाहता भी हो और उससे कोई माफ़ी ना मांगे तो कैसा लगता होगा.... खैर ऑफिस टाइम पर पहुँचने की जल्दबाजी में जैसे तैसे थोड़ा नाश्ता किया और निकल लिया.
.. गाड़ी में बैठा तो सोचकर खुश था कि आज टाइम से पूरा दस मिनट पहले पहुँचा जाऊंगा.. ऑफिस के सामने गाड़ी पार्क करते वक़्त याद आया कि आज २६ है तो कल २५ रही होगी. माँ का तो जन्मदिन भी २५ को होता है. माँ ने बचपन में ही अपने माँ बाप को खो दिया था. शायद जन्मदिन क्या होता है ये वो कभी महसूस भी नहीं कर पाई थी.... सालों पूछने के बाद उन्होने यही बताया था कि स्कूल में २५ दिसम्बर की पैदाइश लिखी हुई है. मन भारी हो रहा था पर खुद को संभाला और सोचा आज शाम माँ को सरप्राइज दूँगा.
यही सब सोचते ऊपर पहुँचा तो शर्मा जी की ‘गुड मोर्निंग’ से चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी...सीना चौड़ा हुआ जा रहा था. समय से तीन मिनट पहले जो पहुँचा था. सबकी सीट पर जा जाकर मैंने भी आज गुड मोर्निंग बोला और मनोहर से तो एक चाय सीट पर पहुँचाने के लिए भी बोल आया....शायद इतने वक़्त तक चोरों की तरह ऑफिस में घुसते घुसते अपनी नज़र में भी गिरने लग गया था और आज टाइम पर पहुँच कर ऐसा लगा जैसे दुनिया ही जीत ली हो... काम सब जल्दी जल्दी खत्म करना था , इसी बीच बाबू जी का फ़ोन आया तो सोचा बस आज भी यूँही फ़ोन किया होगा कि बेटा कुछ खाया या नहीं, पता नहीं ये माँ बाप को बेटे के खाने के सिवा कुछ सूझता क्यों नहीं है, फ़ोन साइलेंट पर कर दिया और काम में जुट गया.... शाम से पहले ही काम ख़त्म भी कर लिया थ... बैग ठीक ६ बजे पैक किया और घर की ओर निकल लिया. आज रास्ते से दवाइयाँ भी लेनी थीं और माँ की मनपसंद मिठाइयाँ भी ...मिठाइयों के बारे में सोचते हुए याद आया कि बचपन में अपने चाचा जी के पास रहते हुए अक्सर माँ चाय की बची हुई उबली हुयी चायपत्ती खाती थीं, क्यूंकि वो मीठी लगती थी. और माँ की चाची जी चीनी का डब्बा अलमारी में रखती थी क्यूंकि उन्हें लगता था कि माँ घर की पूरी चीनी खा जाती हैं. और फिर याद आया कि कैसे मेरे बचपन में माँ, जो कि एक स्कूल में टीचर थीं, किस तरह स्कूल से लड्डू लेकर आती थीं....मैंने एक बार बचपन में पूछा था , " माँ, आपको लड्डू अच्छे नहीं लगते ? तो वो बोली , " बेटा, मेरा बचपन तो चला गया लेकिन तुम्हारा तो अभी भी है और हाँ, जब तुम बड़े हो जाना तो मेरे लिए लड्डू ले आया करना....यह कहते हुए माँ के चेहरे के भावव को याद करते, सोचते हुए आँखों की कोरें गीली हो गयीं.. फिर सोचा आज माँ से लिपट कर कल की बात के लिए माफी माँग लूँगा.....दवाइयाँ लेकर मिठाई की दुकान पर पहुँचा तो आज लड्डू ही लेने का मन किया. लड्डू लेकर आगे बढ़ा तो लगा कि माँ के लिए साड़ी ले लेता हूँ... मेरी याद में माँ ने आखरी नयी साड़ी तकरीबन १० साल पहले मौसी की शादी में खरीदी थी. वो भी उन्होंने सम्भाल कर रख रखी थी कि बहू को देंगीं...१०-१२ साड़ियां देखने के बाद १ साड़ी पसंद की ...मन बहुत खुश था, लग रहा था की आज तो माँ बहुत खुश होगीं और (जैसा वो हमेशा करती हैं) कल की बात भी भूल गयीं होंगीं.... गाड़ी में बैठने वाला ही था कि देखा ऑफिस से शर्मा जी की कॉल आ रही है.... उठाया तो वो कुछ घबरा के बोले कहाँ हैं आप? इससे पहले की मैं कुछ बोलता फोन कट गया था... बैटरी खत्म हो गई थी...मैंने भी सोचा कि आज जरूर कोई काम पड़ा होगा शर्मा जी को वरना कौन ऐसे याद करता है... मैंने गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ़ बढ़ गया...
घर पहुँचकर घंटी बजायी तो फिर किसी ने दरवाजा नहीं खोला... २-३ बार घंटी और बजायी फिर थोड़ी झुँझलाहट होने लगी... लेकिन मैंने आज सोच रखा था कि गुस्सा नहीं करना है सो २-३ बार फिर घंटी बजायी, दरवाजा फिर भी नहीं खुला तो चिंता होने लगी....बाहर आकर मैंने पडोसी मिश्राजी से पूछा कि तो पता चला कि माँ को दिल का दौरा पड़ गया है और उनको लेकर सब अस्पताल गए हैं.
पैर जाम हो गए थे, सर घूम रहा था और जबान सूखने लगी थी....गाड़ी चला कर किसी तरह अस्पताल पहुँचा तो पता चला माँ ICU में हैं...तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो सामने बाबूजी बैठे थे... मैंने पूछा , ये सब कैसे हुआ बाबू जी ....तो वो बोले की रात भर तुम्हारी माँ जाने क्यों सोयी नहीं थी और खाना भी नहीं खाया था और सुबह से ही सीने में दर्द की शिकायत कर रही थीं. जब दिक्कत ज्यादा बढ़ी तो तुम्हे फोन किया पर लेकिन तुम्हारा फ़ोन नहीं उठा ...ऑफिस में फोन करने पर पता चला कि तुम्हे निकले हुए देर हो गयी है. आधे घंटे इन्तेज़ार के बाद भी जब तुम नहीं आये तो हमने एम्बुलेंस बुलवाई...अब तो बस ईश्वर का सहारा है...
बाबूजी को मैंने कभी खुद पर नियंत्रण खोते नहीं देखा था, संभवतः आज यह हाथ से निकलती रेत की वेदना थी जिसको जितने तेजी से वो पकड़ने की कोशिश कर रहे थे लेकिन छूटती जा रही थी या खुद को अशक्त और मजबूर महसूस करने की पीड़ा .. एक अरसे बाद उनकी आँखें आज नम थीं. बाबूजी जिनको हमेशा मैं पत्थर से दिल का और मजबूत समझता था, उनको रोता देखकर ऐसा लगा मानों मेरी नींव ढह गयी हो . आंसुओं का जो सैलाब अभी तक रोका हुआ था.. बाबूजी की आँखों के बाँध के साथ टूट गया.
लगा कि जैसे यह सफलता, शोहरत, इज्जत, दौलत सब बेमानी हैं... सब दुनियावी मेयार हैं... हम खुदको दूसरों की आँखों में देखते है, दूसरों के मुंह से सुनकर जानते समझते हैं और इसीलिए आज ये शायद कुदरत का मेरे मुह पर एक जोरदार तमाचा था....
डॉक्टर ने अंदर जाने की इज़ाज़त दी तो अंदर माँ के पास पड़े स्टूल पर बैठ गया... माँ को होश नहीं आया था ... माँ के पास ही बिस्तर पर सर रखकर सो गया ....
पता नहीं कितनी देर सोया होऊंगा पर जब आँख खुली तो महसूस हुआ माँ मुझको जगा देख , मुस्कुराते हुए बालों में हाथ फिरा रही है....पता नहीं इससे बड़ी खुशी जिंदगी में क्या हो सकती थी.... मैं बहुत कुछ आज माँ से कहना चाह रहा था, बहुत कुछ पूछना चाह रहा था. लेकिन फिर लगा अब माँ से भी क्या कहना सुनना क्योंकि माँ तो बिना कुछ कहे सब समझती है...जिसने अपनी कोख में 9 महीने लगातार अपने जिस्म के एक हिस्से सा महसूस किया हो....और उसके बाद बिना कुछ कहे बिना किसी शिकायत अब तक सब कुछ समझा हो उससे अब क्या ही कहना... अब न कुछ कहना चाहता था और न ही कुछ सुनना ... आँखें बंद करके मैं माँ से उसके आँचल में लिपटकर लेट गया....
आज मैं फिर से बच्चा हो गया था, आज फिर मुझे कोई चिंता नहीं थी... कोई डर नही था....बस था तो एक एहसास जो शब्दों में बाँध पाना शब्दों के भी बस का नहीं है क्योंकि ये एहसास वो है जो एक बेटे को अपनी माँ से लिपटकर उसके पास होकर ही महसूस हो सकता है ....

15 लाख पुरे 15 लाख कश्मीरी हिन्दुओ ने घाटी छोड़ी थी और कई जान गवाँ चुके थे।

शाम होते ही लाउडस्पीकर की आवाज तेज हो जाती थी... "काफिरों घाटी छोडो कश्मीर हमारा है" की नारेबाजी करते हुए भीड़ की भीड़ घुसती थी हिन्दू मुहल्लों में तब बस हत्या करके नही छोड़ा जाता था बल्कि स्त्रियों के स्तनों को काट कर उसपे अपना धर्मिक चिन्ह बनाया जाता था।
बच्चों को दिवारों पर पटक पटक कर मार कर उनके शवों को गली के बिजली के तारो पर टांगा जाता था ताकि खौफ पैदा हो और बस्ती हिन्दुओ से खाली हो ।
रात के अँधेरे में हिन्दू सिक्ख की बस्ती में से पुरुषो को एक तरफ खड़ा कर के "ए0के0-47"की मैगजीनें खाली कर दी जाती थीं।
औरतो को बिना कपड़ो के रोते हुए छोड़ा जाता था, उनके साथ दानवों की तरह हरकत करते, बलात्कार करते और अंततः काट कर या जिन्दा जलाकर मार दिया जाता था।
घरों के बाहर पोस्टर लगते थे "हमे काफिरो के घर चाहिए उनकी औरतो और बच्चियो के साथ"।
15 लाख पुरे 15 लाख कश्मीरी हिन्दुओ ने घाटी छोड़ी थी और कई जान गवाँ चुके थे। किसी यूरोप के देश की आबादी के बराबर थी ये आबादी।
90 के दशक के अख़बार खून से सने हुए आते थे सुबह।
लेकिन लेकिन सेकुलरिज्म की डायन एवार्ड वापसी के लिए बस एक अख़लाक़ की मौत का इंतजार कर रही थी ||

Wednesday, 4 November 2015

जब पोरस ने सिकन्दर के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा

पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर
जब पोरस ने सिकन्दर(Alexander) के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा
जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया...
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में--"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई.."
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इस तरह अपमान कर रहे हैं
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात.....है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया...?
जाने दीजिए....भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है....तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर...!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना...क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया...बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये....! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी...उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा....? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे.....?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है....
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया.."प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था
इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.----ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया...
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे...(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए...
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए...
तो ये थी सिकन्दर की महानता....इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे...
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता....
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)....
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है ?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है.....
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा...मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना ?
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा...
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की....

Tuesday, 3 November 2015

अत्याचार जो मुगलों, चंगेजों, तुर्कों आदि ने हमारे हिंदू पूर्वजो पर किये

अत्याचार जो मुगलों, चंगेजों, तुर्कों आदि ने हमारे हिंदू
पूर्वजो पर किये
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1- मैं नहीं भूला उस कामपिपासु अलाउद्दिन को, जिससे
अपने सतित्तव को बचाने के लिये रानी पद्ममिनी ने 14000
स्त्रियो के साथ जलते हुए अग्निकुंड में कूद गयी थीं।
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2- मैं नहीं भूला उस जालिम औरंगजेब को, जिसने संभाजी
महाराज को इस्लाम स्वीकारने से मना करने पर तडपा तडपा
कर मारा था।
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3- मैं नहीं भूला उस जिहादी टीपु सुल्तान को, जिसने एक
एक दिन में लाखो हिंदुओ का नरसंहार किया था।
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4- मैं नहीं भूला उस जल्लाद शाहजहाँ को, जिसने 14 बर्ष
की एक ब्राह्मण बालिका के साथ अपने महल में जबरन
बलात्कार किया था।
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5- मैं नहीं भूला उस बर्बर बाबर को, जिसने मेरे श्री राम प्रभु
का मंदिर तोडा और लाखों निर्दोष हिंदुओ का कत्ल
किया था।
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6- मैं नहीं भूला उस शैतान सिकन्दर लोदी को, जिसने
नगरकोट के ज्वालामुखि मंदिर की माँ दुर्गा की मूर्ति के
टुकडे कर उन्हे कसाइयो को मांस तोलने के लिये दे दिया था।
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7- मैं नहीं भूला उस धूर्त ख्वाजा मोइन्निद्दिन चिस्ती को,
जिसने संयोगीता को इस्लाम कबूल ना करने पर नग्न कर मुगल
सैनिको के सामने फेंक दिया था।
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8- मैं नहीं भूला उस निर्दयी बजीर खान को, जिसने
गुरूगोविंद सिंह के दोनो मासूम फतेहसिंग और जोरावार को
मात्र 7 साल और 5 बर्ष की उम्र में इस्लाम ना मानने पर
दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था।
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9- मैं नहीं भूला उस जिहादी बजीर खान को, जिसने बन्दा
बैरागी की चमडी को गर्म लोहे की सलाखो से तब तक
जलाया जब तक उसकी हड्डियां ना दिखने लगी मगर उस
बन्दा वैरागी ने इस्लाम स्वीकार नही किया
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10- मैं नहीं भूला उस कसाई औरंगजेब को, जिसने पहले संभाजी
महाराज की आँखों मे गरम लोहे के सलिए घुसाए, बाद मे
उन्हीं गरम सलियों से पुरे शरीर की चमडी उधेडी, फिर भी
संभाजी ने हिंदू धर्म नही छोड़ा था।
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11- मैं नहीं भूला उस नापाक अकबर को, जिसने हेमू के 72
वर्षीय स्वाभिमानी बुजुर्ग पिता के इस्लाम कबूल ना करने
पर उसके सिर को धड़ से अलग करवा दिया था।
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12- मैं नहीं भूला उस वहशी दरिंदे औरंगजेब को, जिसने
धर्मवीर भाई मतिदास के इस्लाम कबूल न करने पर बीच
चौराहे पर आरे से चिरवा दिया था।
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हम हिंदुओ पर हुए अत्याचारो को बताने के लिए शब्द और पन्ने
कम हैं, यदि इस पोस्ट को पढ़कर मेरी तरह आपका खून भी
खौला हो, तो पोस्ट को अपने मित्रों के साथ शेयर ज़रूर करें।
एक ऐसा सच जो आपको आज तक नहीं बताया गया ????
भारत में 3 लाख मस्जिदें हैं जो अन्य किसी देश
में भी नहीं है ।
वाशिंगटन में 24 चर्च हैं
लन्दन में 71 चर्च
और इटली के मिलान शहर में 68 चर्च हैं
जबकि अकेले दिल्ली में 271 चर्च हैं ।
लेकिन हिन्दू फिर भी सांप्रदायिक है ?
है किसी सेकुलर के पास इसका जवाब ???
🚩देशहित में शेयर करें🚩 मेने isi का विरोध करते किसी मुस्लिम को नहीं देखा है
पर rss का विरोध करते हुए लाखो हिन्दू देखे है
मेने किसी मुस्लिम को होली दीवाली की पार्टी देते नहीं देखा है
पर हिन्दुओ को इफ्तार पार्टी देते देखा है
मेने कश्मीर में भारत के झंडे जलते देखे है
पर कभी पाकिस्तान का झंडा जलाते हुए मुसलमान नहीं देखा है
मेने हिन्दुओ को टोपी पहने मजारो पर जाते देखा है
पर किसी मुस्लिम को टिका लगाते मंदिर जाते नहीं देखा है
मेने मिडिया को विदेशो के गुण गाते देखा है
पर भारत के संस्कार के प्रचार करते नहीं देखा है 

रानी पद्मिनी का जौहर

रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया | तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि “हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे |
सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि ” मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | ”
रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी |
सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |
अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |
चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया |
रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया |
आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |
रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा |
रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -” मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |
इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे |
सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया |
इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली | आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया |
जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया |
थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया |
जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया – बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ || इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके |
उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे |
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |