Wednesday, 21 June 2017

राजा दाहरसेन

सम्राट राजा दाहिर एक ऐसा राजा जिसने पूरे 32 साल तक दुश्मन को हिन्दुस्तान में घुसने नहीं दिया
20 जून - बलिदान दिवस उस राजा दाहिरसेन का जिसकी पत्नी, बेटी व बहन भी हत्यारे कासिम से जंग लड़ कर वीरगति पाईं
जरा सोचिए कि जिस राजा ने ही नहीं , उसकी बहन , बेटी , पत्नी ने अपना बलिदान मातृभूमि की रक्षा हेतु एक कट्टर मज़हबी आक्रांता , लुटेरे से लड़ कर दिया हो, उसको इतिहास के पन्नो में एक भी लाइन का स्थान न मिलना उस बलिदानी राजा का अपमान है या स्वयं इतिहास का ...
साजिश , चाटुकारिता व षड्यंत्र के शिकार उन अनंत बलिदानियों व राष्ट्रभक्तो में से एक थे हिन्दू सम्राट राजा दाहिरसेन जिनका आज अर्थात 20 जून को बलिदान दिवस है ...
भारत को लूटने और इस पर कब्जा करने के लिए पश्चिम के रेगिस्तानों से आने वाले मजहबी हमलावरों का वार सबसे पहले सिन्ध की वीरभूमि को ही झेलना पड़ता था। इसी सिन्ध के राजा थे दाहिरसेन, जिन्होंने युद्धभूमि में लड़ते हुए प्राणाहुति दी। उनके बाद उनकी पत्नी, बहिन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर भारत में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया।
सिन्ध के महाराजा चच के असमय देहांत के बाद उनके 12 वर्षीय पुत्र दाहिरसेन गद्दी पर बैठे। राज्य की देखभाल उनके चाचा चन्द्रसेन करते थे;पर छह वर्ष बाद चन्द्रसेन का भी देहांत हो गया। अतः राज्य की जिम्मेदारी 18 वर्षीय दाहिरसेन पर आ गयी। उन्होंने देवल को राजधानी बनाकर अपने शौर्य से राज्य की सीमाओं का कन्नौज, कंधार, कश्मीर और कच्छ तक विस्तार किया।
राजा दाहिरसेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह देखकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ई0 में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किये; पर राजा दाहरसेन और हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया।
सीधी लड़ाई में बार-बार हारने पर कासिम ने धोखा किया। 20 जून, 712 ई. को उसने सैकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहरसेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ रहे थे।
इस दौड़भाग में वे अकेले पड़ गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा को सो गया। इधर महिला वेश में छिपे मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो गया।
राजा दाहरसेन के बलिदान के बाद उनकी पत्नी लाड़ी और बहिन पद्मा ने भी युद्ध में वीरगति पाई। कासिम ने राजा का कटा सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्या और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास उपहारस्वरूप भेज दिया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने उन्हें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
इससे खलीफा भड़क गया। उसने तुरन्त दूत भेजकर कासिम को सूखी खाल में सिलकर हाजिर करने का आदेश दिया। जब कासिम की लाश बगदाद पहुंची, तो खलीफा ने उसे गुस्से से लात मारी। दोनों बहिनें महल की छत पर खड़ी थीं। जोर से हंसते हुए उन्होंने कहा कि हमने अपने देश के अपमान का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप दी और नीचे खाई में कूद पड़ीं। खलीफा अपना सिर पीटता रह गया।

Saturday, 28 January 2017

मेवाड़ की रानी पद्मिनी : एक शौर्य गाथा

मेवाड़ की रानी पद्मिनी : एक शौर्य गाथा
वीर वीरांगनाओं की धरती राजपूताना...जहाँ के इतिहास में आन बान शान या कहें कि सत्य पर बलिदान होने वालों की अनेक गाथाएं अंकित है। एक कवि ने राजस्थान के वीरों के लिए कहा है :
"पूत जण्या जामण इस्या मरण जठे असकेल
सूँघा सिर, मूंघा करया पण सतियाँ नारेल"
{ वहां ऐसे पुत्रों को माताओं ने जन्म दिया था जिनका उदेश्य के लिए म़र जाना खेल जैसा था ...जहाँ की सतियों अर्थात वीर बालाओं ने सिरों को सस्ता और नारियलों को महंगा कर दिया था...(यह रानी पद्मिनी के जौहर को इंगित करता है)...}
आज दिल कर रहा है मेवाड़ की महारानी पद्मिनी की गाथा आप सब से शेयर करने का...
१३०२ इश्वी में मेवाड़ के राजसिंहासन पर रावल रतन सिंह आरूढ़ हुए. उनकी रानियों में एक थी पद्मिनी जो श्री लंका के राजवंश की राजकुँवरी थी. रानी पद्मिनी का अनिन्द्य सौन्दर्य यायावर गायकों (चारण/भाट/कवियों) के गीतों का विषय बन गया था। दिल्ली के तात्कालिक सुल्तान अल्ला-उ-द्दीन खिलज़ी ने पद्मिनी के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन सुना और वह पिपासु हो गया उस सुंदरी को अपने हरम में शामिल करने के लिए। अल्ला-उ-द्दीन ने चित्तौड़ (मेवाड़ की राजधानी) की ओर कूच किया अपनी अत्याधुनिक हथियारों से लेश सेना के साथ। मकसद था चित्तौड़ पर चढ़ाई कर उसे जीतना और रानी पद्मिनी को हासिल करना। ज़ालिम सुलतान बढा जा रहा था, चित्तौड़गढ़ के नज़दीक आये जा रहा था। उसने चित्तौड़गढ़ में अपने दूत को इस पैगाम के साथ भेजा कि अगर उसको रानी पद्मिनी को सुपुर्द कर दिया जाये तो वह मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करेगा।
रणबाँकुरे राजपूतों के लिए यह सन्देश बहुत शर्मनाक था। उनकी बहादुरी कितनी ही उच्चस्तरीय क्यों ना हो, उनके हौसले कितने ही बुलंद क्यों ना हो, सुलतान की फौजी ताक़त उनसे कहीं ज्यादा थी। रणथम्भोर के किले को सुलतान हाल ही में फतह कर लिया था ऐसे में बहुत ही गहरे सोच का विषय हो गया था सुल्तान का यह घृणित प्रस्ताव, जो सुल्तान की कामुकता और दुष्टता का प्रतीक था। कैसे मानी जा सकती थी यह शर्मनाक शर्त।
नारी के प्रति एक कामुक नराधम का यह रवैय्या क्षत्रियों के खून खौला देने के लिए काफी था। रतन सिंह जी ने सभी सरदारों से मंत्रणा की, कैसे सामना किया जाय इस नीच लुटेरे का जो बादशाह के जामे में लिपटा हुआ था। कोई आसान रास्ता नहीं सूझ रहा था। मरने मारने का विकल्प तो अंतिम था। क्यों ना कोई चतुराईपूर्ण राजनीतिक कूटनीतिक समाधान समस्या का निकाला जाय ?
रानी पद्मिनी न केवल अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी थी, वह एक बुद्धिमता नारी भी थी। उसने अपने विवेक से स्थिति पर गौर किया और एक संभावित हल समस्या का सुझाया। अल्ला-उ-द्दीन को जवाब भेजा गया कि वह अकेला निरस्त्र गढ़ (किले) में प्रवेश कर सकता है, बिना किसी को साथ लिए, राजपूतों का वचन है कि उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा....हाँ वह केवल रानी पद्मिनी को देख सकता है...बस. उसके पश्चात् उसे चले जाना होगा चित्तौड़ को छोड़ कर... जहाँ कहीं भी, उम्मीद कम थी कि इस प्रस्ताव को सुल्तान मानेगा। किन्तु आश्चर्य हुआ जब दिल्ली के आका ने इस बात को मान लिया। निश्चित दिन को अल्ला-उ-द्दीन पूर्व के चढ़ाईदार मार्ग से किले के मुख्य दरवाज़े तक चढ़ा, और उसके बाद पूर्व दिशा में स्थित सूरजपोल तक पहुंचा। अपने वादे के मुताबिक वह नितान्त अकेला और निरस्त्र था, पद्मिनी के पति रावल रतन सिंह ने महल तक उसकी अगवानी की। महल के उपरी मंजिल पर स्थित एक कक्ष कि पिछली दीवार पर एक दर्पण लगाया गया, जिसके ठीक सामने एक दूसरे कक्ष की खिड़की खुल रही थी...उस खिड़की के पीछे झील में स्थित एक मंडपनुमा महल था जिसे रानी अपने ग्रीष्म विश्राम के लिए उपयोग करती थी। रानी मंडपनुमा महल में थी जिसका बिम्ब खिडकियों से होकर उस दर्पण में पड़ रहा था अल्लाउद्दीन को कहा गया कि दर्पण में झांके। हक्केबक्के सुलतान ने आईने की जानिब अपनी नज़र की और उसमें रानी का अक्स उसे दिख गया ...तकनीकी तौर पर उसे रानी साहिबा को दिखा दिया गया था..सुल्तान को एहसास हो गया कि उसके साथ चालबाजी की गयी है, किन्तु बोल भी नहीं पा रहा था, मेवाड़ नरेश ने रानी के दर्शन कराने का अपना वादा जो पूरा किया था......और उस पर वह नितान्त अकेला और निरस्त्र भी था।
परिस्थितियां असमान्य थी, किन्तु एक राजपूत मेजबान की गरिमा को अपनाते हुए, दुश्मन अल्लाउद्दीन को ससम्मान वापस पहुँचाने मुख्य द्वार तक स्वयं रावल रतन सिंह जी गये थे .....अल्लाउद्दीन ने तो पहले से ही धोखे की योजना बना रखी थी। उसके सिपाही दरवाज़े के बाहर छिपे हुए थे...दरवाज़ा खुला....रावल साहब को जकड लिया गया और उन्हें पकड़ कर शत्रु सेना के खेमे में कैद कर दिया गया।
रावल रतन सिंह दुश्मन की कैद में थे। अल्लाउद्दीन ने फिर से पैगाम भेजा गढ़ में कि राणाजी को वापस गढ़ में सुपुर्द कर दिया जायेगा, अगर रानी पद्मिनी को उसे सौंप दिया जाय। चतुर रानी ने काकोसा गोरा और उनके १२ वर्षीय भतीजे बादल से मशविरा किया और एक चातुर्यपूर्ण योजना राणाजी को मुक्त करने के लिए तैयार की।
अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा गया कि अगले दिन सुबह रानी पद्मिनी उसकी खिदमत में हाज़िर हो जाएगी, दिल्ली में चूँकि उसकी देखभाल के लिए उसकी खास दसियों की ज़रुरत भी होगी, उन्हें भी वह अपने साथ लिवा लाएगी। प्रमुदित अल्लाउद्दीन सारी रात्रि सो न सका...कब रानी पद्मिनी आये उसके हुज़ूर में, कब वह विजेता की तरह उसे भी जीते.....कल्पना करता रहा रात भर पद्मिनी के सुन्दर तन की....प्रभात बेला में उसने देखा कि एक जुलुस सा सात सौ बंद पालकियों का चला आ रहा है। खिलज़ी अपनी जीत पर इतरा रहा था। खिलज़ी ने सोचा था कि ज्योंही पद्मिनी उसकी गिरफ्त में आ जाएगी, रावल रतन सिंह का वध कर दिया जायेगा...और चित्तौड़ पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया जायेगा। कुटिल हमलावर इस से ज्यादा सोच भी क्या सकता था। खिलज़ी के खेमे में इस अनूठे जुलूस ने प्रवेश किया...और तुरंत अस्तव्यस्तता का माहौल बन गया...पालकियों से नहीं उतरी थी अनिन्द्य सुंदरी रानी पद्मिनी और उसकी दासियों का झुण्ड....बल्कि पालकियों से कूद पड़े थे हथियारों से लेश रणबांकुरे राजपूत योद्धा ....जो अपनी जान पर खेल कर अपने राजा को छुड़ा लेने का ज़ज्बा लिए हुए थे। गोरा और बादल भी इन में सम्मिलित थे, मुसलमानों ने तुरत अपने सुल्तान को सुरक्षा घेरे में लिया। रतन सिंह जी को उनके आदमियों ने खोज निकाला और सुरक्षा के साथ किले में वापस ले गये। घमासान युद्ध हुआ, जहाँ दया करुणा को कोई स्थान नहीं था। मेवाड़ी और मुसलमान दोनों ही रण-खेत रहे, मैदान इंसानी लाल खून से सुर्ख हो गया था। शहीदों में गोरा और बादल भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के भगवा ध्वज की रक्षा के लिए अपनी आहुति दे दी थी।
अल्लाउद्दीन की खूब मिटटी पलीद हुई. खिसियाता, क्रोध में आग बबूला होता हुआ, लौमड़ी सा चालाक और कुटिल सुल्तान दिल्ली को लौट गया। उसे चैन कहाँ था, जुगुप्सा का दावानल उसे लगातार जलाए जा रहा था। एक औरत ने उस अधिपति को अपने चातुर्य और शौर्य से मुंह के बल पटक गिराया था। उसका पुरुष चित्त उसे कैसे स्वीकार का सकता था। उसके अहंकार को करारी चोट लगी थी, मेवाड़ का राज्य उसकी आँख की किरकिरी बन गया था।
कुछ महीनों के बाद वह फिर चढ़ बैठा था चित्तौडगढ़ पर, ज्यादा फौज और तैय्यारी के साथ। उसने चित्तौड़गढ़ के पास मैदान में अपना खेमा डाला, किले को घेर लिया गया....किसी का भी बाहर निकलना सम्भव नहीं था..दुश्मन कि फौज के सामने मेवाड़ के सिपाहियों की तादाद और ताक़त बहुत कम थी। थोड़े बहुत आक्रमण शत्रु सेना पर बहादुर राजपूत कर पाते थे लेकिन उनको कहा जा सकता था ऊंट के मुंह में जीरा। सुल्तान की फौजें वहां अपना पड़ाव डाले बैठी थी, इंतज़ार में. छः महीने बीत गये, किले में संगृहीत रसद ख़त्म होने को आई। अब एक ही चारा बचा था, "करो या मरो" या "घुटने टेको" आत्मसमर्पण या शत्रु के सामने घुटने टेक देना बहादुर राजपूतों के गौरव लिए अभिशाप तुल्य था, ऐसे में बस एक ही विकल्प बचा था झूझना...युद्ध करना...शत्रु का यथासंभव संहार करते हुए वीरगति को पाना।
बहुत बड़ी विडंबना थी कि शत्रु के कोई नैतिक मूल्य नहीं थे। वे न केवल पुरुषों को मारते काटते, नारियों से बलात्कार करते और उन्हें भी मार डालते। यही चिंता समायी थी धर्म परायण शिशोदिया वंश के राजपूतों में....और मेवाड़ियों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया।
किले के बीच स्थित मैदान में लकड़ियों, नारियलों एवम् अन्य इंधनों का ढेर लगाया गया.....सारी स्त्रियों ने, रानी से दासी तक, अपने बच्चों के साथ गोमुख कुन्ड में विधिवत पवित्र स्नान किया....सजी हुई चित्ता को घी, तेल और धूप से सींचा गया....और पलीता लगाया गया. चित्ता से उठती लपटें आकाश को छू रही थी। नारियां अपने श्रेष्ठतम वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित थी, अपने पुरुषों को अश्रुपूरित विदाई दे रही थी....अंत्येष्टि के शोकगीत गाये जा रही थी. अफीम अथवा ऐसे ही किसी अन्य शामक औषधियों के प्रभाव से प्रशांत हुई, महिलाओं ने रानी पद्मावती के नेतृत्व में चित्ता कि ओर प्रस्थान किया....और कूद पड़ी धधकती चित्ता में....अपने आत्मदाह के लिए....जौहर के लिए....देशभक्ति और गौरव के उस महान यज्ञ में अपनी पवित्र आहुति देने के लिए।
जय एकलिंग, हर हर महादेव के उदघोषों से गगन गुंजरित हो उठा था. आत्माओं का परमात्मा से विलय हो रहा था।
अगस्त २५, १३०३ कि भोर थी, आत्मसंयमी दुखसुख को समान रूप से स्वीकार करनेवाला भाव लिए, पुरुष खड़े थे उस हवन कुन्ड के निकट, कोमलता से भगवद गीता के श्लोकों का कोमल स्वर में पाठ करते हुए.....अपनी अंतिम श्रद्धा अर्पित करते हुए.... प्रतीक्षा में कि वह विशाल अग्नि उपशांत हो। पौ फट गयी.....सूरज कि लालिमा ताम्रवर्ण लिए आकाश में आच्छादित हुई.....पुरुषों ने केसरिया बागे पहन लिए....अपने अपने भाल पर जौहर की पवित्र भभूत से टीका किया....मुंह में प्रत्येक ने तुलसी का पता रखा....दुर्ग के द्वार खोल दिए गये। जय एकलिंग....हर हर महादेव कि हुंकार लगते रणबांकुरे मेवाड़ी टूट पड़े शत्रु सेना पर...मरने मारने का ज़ज्बा था....आखरी दम तक अपनी तलवारों को शत्रु का रक्त पिलाया...और स्वयं लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये।
अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, न मेवाड़ कि पगड़ी उसके कदमों में गिरी।

Friday, 27 January 2017

जयपुर में संजय लीला भंसाली की 'लीला' सूजा दी लठ मार मार कर !

जयपुर में संजय लीला भंसाली की 'लीला' सूजा दी लठ मार मार कर !
इसके पीछे का कारण पढिये-
ये 25 अगस्त 1303 ई० की भयावह काली रात थी ...स्थान मेवाड़ दुर्ग राजस्थान ....राजा रतन सिंह जी की रियासत ...राजा रतन सिंह की धर्मपत्नी रानी पद्मावती सहित 200 से ज्याद राजपूत स्त्रियाँ उस दहकते हवन कुंड के सामने खड़ी थी .....दुर्दांत आक्रान्ता अल्लौद्दीन खिलजी दुर्ग के बंद द्वार पर अपने सेना के साथ खड़ा था .....अलाउद्दीन वही शख्स था जो परम रूपवती रानी पद्मावती को पाना चाहता था और अपने हरम की रानी बना कर रखना चाहता था ....रानी पद्मावती को प्राप्त करने के लिए उसने दो बार मेवाड़ पर हमला किया ...लेकिन वीर राजपूतों के आगे उसकी सेना टिक ना सकी ...लेकिन इस बार मामला उलट चूका था .....अलाउद्दीन लम्बी चौड़ी सेना के साथ मेवाड़ के दुर्ग के बाहर अपना डेरा दाल चूका था ....ज्यादा तर राजपूत सेना वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी......सबको समझ में आ चूका था की अब इन हरामियों से बचना मुस्किल हैं ..मुस्लमान ना सिर्फ युद्ध में हिन्दू राजाओं को मरते थे बल्कि उनकी औरतों को साथ बलात्कार भी करते और अंत में उन्हें गजनी के मीना बाज़ार लाकर बेच दिया जाता था .....तभी एक तेज़ आवाज के साथ मुस्लमान सैनिकों ने दुर्ग का विशाल दरवाजा तोड़ दिया ..मुस्लिम सेना तेज़ी से महल की तरफ बढ़ चली ..जहाँ पर महान जौहर वव्रत चल रहा था वो महल का पिछला हिस्सा था .....राजपूत रणबाकुरों का रक्त खौलने लगा ..तलवारे खीच गयी मुट्ठियाँ भीच गयी ..हर हर महादेव के साथ 500 राजपूत रणबाकुरे उस दस हज़ार की मुस्लिम सेना से सीधे भिड गये ...महा भयंकर युद्ध की शुरुवात हो गयी जहाँ दया और करुणा के लिए कोई स्थान नहीं था ..हर वार एक दुसरे का सर काटने के लिए था ....नारे ताग्बीर अल्लाहो अकबर और हर हर महा देव के गगन भेदी नारों से मेवाड़ का नीला आसमान गूँज उठा ......हर राजपूत सैनिक अपनी अंतिम सांस तक लड़ा ..मुसलमानों के रास्ते में जो भी औरतें आई ..उसने साथ सामूहिक बलात्कार किया गया ..अंत में वो कालजयी क्षण आ गया जब महान सुन्दरी और वीरता और सतीत्व का प्रतीक महारानी पद्मावती उस रूई घी और चंदन की लकड़ियों से सजी चिता पे बैठ गयी ..बची हुइ नारियां अपने श्रेष्ठतम वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित थी.....अपने पुरुषों को अश्रुपूरित विदाई दे रही थी....अंत्येष्टि के शोकगीत गाये जा रही थी. महिलाओं ने रानी पद्मावती के नेतृत्व में चिता की ओर प्रस्थान किया.....और कूद पड़ी धधकती चित्ता में....अपने आत्मदाह के लिए....जौहर के लिए....देशभक्ति और गौरव के उस महान यज्ञ में अपनी पवित्र आहुति देने के लिए. जय एकलिंग.......,आकाश हर हर महादेव के उदघोषों से गूँज उठा था.....आत्माओं का परमात्मा से मिलन हो रहा था.
अगस्त 25, 1303 ई ० की भोर थी,.चिता शांत हो चुकी थी .....राजपूत वीरांगनाओं की चीख पुकार से वातावरण द्रवित हो चूका था .....राजपूत पुरुषों ने केसरिया साफे बाँध लिए....अपने अपने भाल पर जौहर की पवित्र भभूत से टीका किया....मुंह में प्रत्येक ने तुलसी का पता रखा....दुर्ग के द्वार खोल दिए गये....हर हर महादेव कि हुंकार लगाते राजपूत रणबांकुरे मेवाड़ी टूट पड़े अलाउदीन की सेना पर......हर कोई मरने मारने पर उतारू था ....दया का परित्याग कर दिया गया ..मुसलमानों को उनकी औकात दिखा दी गयी .....राजपूतों रणबाकुरों ने आखिरी दम तक अपनी तलवारों को मुस्लिम सैनिको का खून पिलाया और अंत में लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये. अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, मेवाड़ कि पगड़ी उसके कदमों में नहीं गिरी. चातुर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी रानी पद्मिनी ने उसे एक बार और छल लिया था.
ये खुनी रात की वो कहानी है जिसे किसी इतिहास में हमे नहीं पढ़ाया जाता ......एक वीरांगना के इस अतुल्य बलिदान पर बॉलीवुड का माधरचोद रंडी की औलाद संजय लीला भंसाली फिल्म बना रहा है जिसका थीम है अलाउद्दीन और रानी पद्मावती का प्रेम ......अबे माधर चोद रंडी के जाने सांय लीला भंसाली ..अबे तुम क्या जानो रानी पद्मावती क्या थी बे ??? रंडी के जाने एक ऊँगली में आग लग जाती है तो दस दिन अपनी अम्मी के भोसड़े में छिपे रहते हो ...और तुम माधरचोद खिलजी की वासना और दुश्चरित्रता को एक प्रेमकहानी दिखा रहे हो ??
ऐ महा हरामज्यादे संजय लीला भंसाली ..मुसलमानों के हरम से निकली औलाद सुन ..तू एक हिन्दू पतिव्रता स्त्री की शक्ति को कदाचित पहचनता नहीं है .....आज अवसर और परिस्थितियाँ मेरे बस में नहीं हैं ..नहीं तो मै ये पोस्ट नहीं लिखता दोगले सीधे महानगरी एक्सप्रेस पकड़कर मुंबई आता और तेरे फ्लैट पर ही आकर तेरे दो टुकड़े कर देता ..लेकिन टू चिंता ना कर आज नहीं तो कल तुझे जोधा अकबर और पद्मावती को बनाने के लिए सजा मिलेगी ..जरुर मिलेगी!
रानी पद्मावती भारतीय महिलाओं की आदर्श है किसी कटमुल्ले की माशूका नही😡😡
भंसाली शुक्र मान #राणा_की_धरती से सिर्फ थप्पड़ों में निकल गया..क्योंकि पीड़ा यह है कि सिर्फ करणी सेना ही इसका विरोध कर रही थी संपूर्ण हिन्दू समाज नहीं और उससे भी बड़ी पीड़ा यह है कि तुझ जैसा भड़वा भी हिन्दू समाज का ही सेक्युलर कुत्ता है जो ऐसी बकवास सोच रख के उसे फिल्म में उतारता है ।।
#Boycott_Bhansali
#Boycott_AntiHindu
कृपया भाषा संयमित करे ऐसा उपदेश कोई नही दे
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 संवत १३०१ यानी १३ वि सदी में चित्तोड़ की महा रानी पद्मवाती ( पद्मिनी ) ने अल्लुद्दीन खिलजी के नाम एक चिठ्ठी " जोहर " करने के समय लिखी थी। अरे ओ दुष्ट , ओ पापी , तू इस सूरत को कभी पा नहीं सकता , ये भोजन है " शेर " का , कुत्ता जिसे खा नहीं सकता। जिस पद्मावती को अल्लुद्दीन खिलजी ने छुआ तक नहीं है , रूबरू देखा तक नहीं हैं ( इतिहास के आधार पर ) उन दोनों में प्रेम कैसे हो सकता है जो ये चूतिया " संजय भन्साली " दिखा रहा हैं ?? मैं " करनी सेना " के सभी राजपूतो को धन्यवाद देता हु इस " शुभ कार्य " करने के बदल। आगे कोम्युनिष्ट पार्टी और जितने " मादर चोदो " ने हमारे गौरव शाली इतिहास को मलिन किया है और मलिन करने की कोशिशें करते है , उन्हें ऐसा मारो की उनकी आने वाली सात पीढियो को इतिहास का सच्चा ज्ञान रहे। जय हो हिन्द की राजपूतानिया की। जय हिन्द। जय हो करनी सेना की।L

Friday, 13 January 2017

कुतुबुद्दीन की मौत ..और सत्य .

कुतुबुद्दीन की मौत ..और सत्य ..!!!
इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई ..!!!
ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया ..!!!
अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है।
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था। उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा।
उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया।
एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया। इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया ..!!
दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि, -
बुजकशी खेला जाएगा लेकिन, इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा।
कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" को चुना ..!!!
कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा।
राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया। जब राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर पैरो से कई वार कर कूचला, जिससे कुतुबुद्दीन बही पर मर गया ..!!!!!
इससे पहले कि, सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक पर सवार होकर वहां से निकल गए।
कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके ..!!! शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका ..!!
वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा ..!!!!!
वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया ..!!! कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन, इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है।
धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं।

Tuesday, 27 December 2016

वीर गाथा उन सुकुमारों की जिनकी शहादत के समय (5 वर्ष और 7 वर्ष) अभी दूध के दाँत भी नहीं गिरे थे

माता गुजरी और और गुरुपुत्र छोटे साहिबजादे के बलिदान को यह राष्ट्र सदा स्मरण करता रहेगा |
Sirhind Di Deewar : History & Story in Hindi : यह वीर गाथा उन सुकुमारों की है जिनकी शहादत के समय (5 वर्ष और 7 वर्ष) अभी दूध के दाँत भी नहीं गिरे थे। जिनके लिए सरदार पांछी ने कहा है-
“यह गर्दन कट तो सकती है मगर झुक नहीं सकती।
कभी चमकौर बोलेगा कभी सरहिन्द की दीवार बोलेगी।।”
छोटे साहिबजादों और माता गुजरी जी की शहीदी
सूरा सो पहचानिये, जो लरै दीन के हेतु ।।
पुरजा पुरजा कटि मरै, कबहु न छाडै खेतु ।। (सलोक कबीर जी)
यह वीर गाथा उन सुकुमारों की है जिनकी शहादत के समय अभी दूध के दाँत भी नहीं गिरे थे।
सन :1705 ईस्वी 20 दिसम्बर: की मध्यरात्रि का समय श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी की श्री आनंदपुर साहिब जी में यह अन्तिम रात्रि थी। कल प्रातः न जाने वह कहाँ होंगे और उनके बच्चे कहाँ ? सरसा नदी पार करते-करते कई झड़पें हुई, जिसमें कई सिक्ख मारे गए। कई नदी में फिसलकर गिर पड़े। पाँच सौ में से केवल चालीस सिक्ख बचे जो गुरू साहिब के साथ रोपड़ के समीप चमकौर की गढ़ी में पहुँच गए। साथ दो बड़े साहिबजादे भी थे। इस गढ़बढ़ी में गुरू साहिब जी के दो छोटे साहिबजादे माता गुजरी जी सहित गुरू साहिब से बिछुड़ गए। माता सुन्दरी और माता साहिब कौर, भाई मनी सिंह जी के साथ दिल्ली की ओर चले गए। जिसे जिधर मार्ग मिला चल पड़ा।
सरसा नदी की बाढ़ के कारण श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी का परिवार काफिले से बिछुड़ गया। माता गुजर कौर (गुजरी जी) के साथ उनके दो छोटे पोते, अपने रसोइये गँगा राम के साथ आगे बढ़ती हुए रास्ता भटक गईं। उन्हें गँगा राम ने सुझाव दिया कि यदि आप मेरे साथ मेरे गाँव सहेड़ी चलें तो यह सँकट का समय सहज ही व्यतीत हो जाएगा। माता जी ने स्वीकृति दे दी और सहेड़ी गाँव गँगा राम रसोइये के घर पहुँच गये।
माता गुजरी जी के पास एक थैली थी, जिसमें कुछ स्वर्ण मुद्राएँ थीं जिन पर गंगा राम की दृष्टि पड़ गई। गँगू की नीयत खराब हो गई। उसने रात में सोते हुए माता गुजरी जी के तकिये के नीचे से स्वर्ण मुद्राओं की थैली चुपके से चुरा ली और छत पर चढ़कर चोर चोर का शोर मचाने लगा। माता जी ने उसे शान्त करने का प्रयास किया किन्तु गँगू तो चोर-चतुर का नाटक कर रहा था।
इस पर माता जी ने कहा गँगू थैली खो गई है तो कोई बात नहीं, बस केवल तुम शाँत बने रहो। किन्तु गँगू के मन में धैर्य कहाँ ? उन्हीं दिनों सरहिन्द के नवाब वजीद ख़ान ने गाँव-गाँव में ढिँढोरा पिटवा दिया कि गुरू साहिब व उनके परिवार को कोई पनाह न दे। पनाह देने वालों को सख्त सजा दी जायेगी और उन्हें पकड़वाने वालों को इनाम दिया जाएगा।
गँगा राम पहले तो यह ऐलान सुनकर भयभीत हो गया कि मैं खामख्वाह मुसीबत में फँस जाऊँगा। फिर उसने सोचा कि यदि माता जी व साहिबज़ादों को पकड़वा दूँ तो एक तो सूबे के कोप से बच जाऊँगा तथा दूसरा इनाम भी प्राप्त करूँगा। गँगू नमक हराम निकला। उसने मोरिंडा की कोतवाली में कोतवाल को सूचना देकर इनाम के लालच में बच्चों को पकड़वा दिया।
थानेदार ने एक बैलगाड़ी में माता जी तथा बच्चों को सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान के पास कड़े पहरे में भिजवा दिया। वहाँ उन्हें सर्द ऋतु की रात में ठण्डे बुरज में बन्द कर दिया गया और उनके लिए भोजन की व्यवस्था तक नहीं की गई। दूसरी सुबह एक दुध वाले (मोती महरा) ने माता जी तथा बच्चों को दूध पिलाया।
नवाब वज़ीर खान जो गुरू गोबिन्द सिंह जी को जीवित पकड़ने के लिए सात माह तक सेना सहित आनन्दपुर के आसपास भटकता रहा, परन्तु निराश होकर वापस लौट आया था, उसने जब गुरू साहिब के मासूम बच्चों तथा वृद्ध माता को अपने कैदियों के रूप में देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अगली सुबह बच्चों को कचहरी में पेश करने के लिए फरमान जारी कर दिया।
दिसम्बर की बर्फ जैसी ठण्डी रात को, ठण्डे बुरज में बैठी माता गुजरी जी अपने नन्हें नन्हें दोनों पोतों को शरीर के साथ लगाकर गर्माती और सुलाने का प्रयत्न करती रहीं। माता जी ने भोर होते ही मासूमों को जगाया तथा स्नेह से तैयार किया। दादी-पोतों से कहने लगी ‘पता है ! तुम उस गोबिन्द सिंह ‘शेर’ गुरू के बच्चे हो, जिसने अत्याचारियों से कभी हार नहीं मानी। धर्म की आन तथा शान के बदले जिसने अपना सर्वत्र दाँव पर लगा दिया और इससे पहले अपने पिता को भी शहीदी देने के लिए प्रेरित किया था। देखना कहीं वज़ीर ख़ान द्वारा दिये गये लालच अथवा भय के कारण धर्म में कमजोरी न दिखा देना। अपने पिता व धर्म की शान को जान न्यौछावर करके भी कायम रखना।
दादी, पोतों को यह सब कुछ समझा ही रही थी कि वज़ीर ख़ान के सिपाही दोनों साहिबजादों को कचहरी में ले जाने के लिए आ गये। जाते हुए दादी माँ ने फिर सहिबजादों को चूमा और पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें सिपाहियों के सँग भेज दिया। कचहरी का बड़ा दरवाजा बँद था। साहिबज़ादों को खिड़की से अन्दर प्रवेश करने को कहा गया।
रास्ते में उन्हें बार बार कहा गया था कि कचहरी में घुसते ही नवाब के समक्ष शीश झुकाना है। जो सिपाही साथ जा रहे थे वे पहले सर झुका कर खिड़की के द्वारा अन्दर दाखिल हुए। उनके पीछे साहबज़ादे थे। उन्होंने खिड़की में पहले पैर आगे किये और फिर सिर निकाला। थानेदार ने बच्चों को समझाया कि वे नवाब के दरबार में झुककर सलाम करें।
किन्तु बच्चों ने इसके विपरीत उत्तर दिया और कहा: यह सिर हमने अपने पिता गुरू गोबिन्द सिंह के हवाले किया हुआ है, इसलिए इस को कहीं और झुकाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
कचहरी में नवाब वज़ीर खान के साथ और भी बड़े बड़े दरबारी बैठे हुए थे। दरबार में प्रवेश करते ही जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह दोनों भाईयों ने गर्ज कर जयकारा लगाया– ‘वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह’। नवाब तथा दरबारी, बच्चों का साहस देखकर आश्चर्य में पड़ गये।
एक दरबारी सुच्चानँद ने बच्चों से कहा: ऐ बच्चों ! नवाब साहब को झुककर सलाम करो।
साहिबज़ादों ने उत्तर दिया: ‘हम गुरू तथा ईश्वर के अतिरिक्त किसी को भी शीश नहीं झुकाते, यही शिक्षा हमें प्राप्त हुई है’।
नवाब वज़ीर खान कहने लगा: ओए ! तुम्हारा पिता तथा तुम्हारे दोनों बड़े भाई युद्ध में मार दिये गये हैं। तुम्हारी तो किस्मत अच्छी है जो मेरे दरबार में जीवित पहुँच गये हो। इस्लाम धर्म को कबूल कर लो तो तुम्हें रहने को महल, खाने को भाँति भांति के पकवान तथा पहनने को रेशमी वस्त्र मिलेंगे। तुम्हारी सेवा में हर समय सेवक रहेंगे। बड़े हो जाओगे तो बड़े-बड़े मुसलमान जरनैलों की सुन्दर बेटियों से तुम्हारी शादी कर दी जायेगी। तुम्हें सिक्खी से क्या लेना है ? सिक्ख धर्म को हमने जड़ से उखाड़ देना है। हम सिक्ख नाम की किसी वस्तु को रहने ही नहीं देंगे। यदि मुसलमान बनना स्वीकार नहीं करोगे तो कष्ट दे देकर मार दिये जाओगे और तुम्हारे शरीर के टुकड़े सड़कों पर लटका दिये जायेंगे ताकि भविष्य में कोई सिक्ख बनने का साहस ना कर सके।’’ नवाब बोलता गया। पहले तो बच्चे उसकी मूर्खता पर मुस्कराते रहे, फिर नवाब द्वारा डराने पर उनके चेहरे लाल हो गये।
इस बार जोरावर सिंह दहाड़ उठा: हमारे पिता अमर हैं। उसे मारने वाला कोई जन्मा ही नहीं। उस पर अकालपुरूष (प्रभु) का हाथ है। उस वीर योद्धा को मारना असम्भव है। दूसरी बात रही, इस्लाम कबूल करने की, तो हमें धर्म जान से अधिक प्यारी है। दुनियाँ का कोई भी लालच व भय हमें धर्म से नहीं गिरा सकता। हम पिता गुरू गोबिन्द सिंह के शेर बच्चे हैं तथा शेरों की भान्ति किसी से नहीं डरते। हम इस्लाम धर्म कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। तुमने जो करना हो, कर लेना। हमारे दादा श्री गुरू तेग बहादुर साहिब ने शहीद होना तो स्वीकार कर लिया परन्तु धर्म से विचलित नहीं हुए। हम उसी दादा जी के पोते हैं, हम जीते जी उनकी शान को आँच नहीं आने देंगे।
सात वर्ष के जोरावर सिंह तथा पाँच वर्ष के फतेह सिंह के मुँह से बहादुरों वाले ये शब्द सुनकर सारे दरबार में चुप्पी छा गई। नवाब वज़ीर ख़ान भी बच्चों की बहादुरी से प्रभावित हुए बिना न रह सका। परन्तु उसने काज़ी को साहिबज़ादों के बारे में फतवा,सजा देने को कहा।
काज़ी ने उत्तर दिया: कि बच्चों के बारे में फतवा, दण्ड नहीं सुनाया जा सकता।
इस पर सुच्चानन्द बोला: इतनी अल्प आयु में ये राज दरबार में इतनी आग उगल सकते हैं तो बड़े होकर तो हकूमत को ही आग लगा देंगे। ये बच्चे नहीं, साँप हैं, सिर से पैर तक ज़हर से भरे हुए। एक गुरू गोबिन्द सिंह ही बस में नहीं आते तो जब ये बड़े हो गये तो उससे भी दो कदम आगे बढ़ जायेंगे। साँप को पैदा होते ही मार देना चाहिए। देखो, इनका हौसला ! नवाब का अपमान करने से नहीं झिझके। इनका तो अभी से काम तमाम कर देना चाहिए। नवाब ने बाकी दरबारियों की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा कि कोई और सुच्चानन्द की बात का समर्थन करता है अथवा नहीं,परन्तु सभी दरबारी मूर्तिव्रत खड़े रहे। किसी ने भी सुच्चा नन्द की हाँ में हाँ नहीं मिलाई।
तब वज़ीर ख़ान ने मालेरकोटले के नवाब से पूछा: ‘‘आपका क्या ख्याल है ? आपका भाई और भतीजा भी तो गुरू के हाथों चमकौर में मारे गये हैं। लो अब शुभ अवसर आ गया है बदला लेने का, इन बच्चों को मैं आपके हवाले करता हूँ। इन्हें मृत्युदण्ड देकर आप अपने भाई-भतीजे का बदला ले सकते हैं।’’
मालेरकोटले का नवाब पठान पुत्र था। उस पठान ने मासूम बच्चों से बदला लेने से साफ इन्कार कर दिया और उसने कहा: ‘‘इन बच्चों का क्या कसूर है ? यदि बदला लेना ही है तो इनके बाप से लेना चाहिए। मेरा भाई और भतीजा गुरू गोबिन्द सिंह के साथ युद्ध करते हुए रणक्षेत्र में शहीद हुए हैं, कत्ल नहीं किये गये हैं। इन बच्चों को मारना मैं बुज़दिली समझता हूँ। अतः इन बेकसूर बच्चों को छोड़ दीजिए।
मालेरकोटले का नवाब शेरमुहम्मद ख़ान चमकौर के युद्ध से वज़ीर ख़ान के साथ ही वापिस आया था और वह अभी सरहिन्द में ही था। नवाब पर सुच्चानन्द द्वारा बच्चों के लिए दी गई सलाह का प्रभाव तो पड़ा, पर वह बच्चों को मारने की बजाय इस्लाम में शामिल करने के हक में था। वह चाहता था कि इतिहास के पन्नों पर लिखा जाये कि गुरू गाबिन्द सिंह के बच्चों ने सिक्ख धर्म से इस्लाम को अच्छा समझा और मुसलमान बन गए।
अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु उसने गुस्से पर नियँत्रण कर लिया तथा कहने लगा:बच्चों जाओ, अपनी दादी के पास। कल आकर मेरी बातों का सही-सही सोचकर उत्तर देना। दादी से भी सलाह कर लेना। हो सकता है तुम्हें प्यार करने वाली दादी तुम्हारी जान की रक्षा के लिए तुम्हारा इस्लाम में आना कबूल कर ले। बच्चे कुछ कहना चाहते थे परन्तु वज़ीद ख़ान शीघ्र ही उठकर एक तरफ हो गया और सिपाही बच्चों को दादी माँ की ओर लेकर चल दिए।
बच्चों को पूर्ण सिक्खी स्वरूप में तथा चेहरों पर पूर्व की भाँति जलाल देखकर दादी ने सुख की साँस ली। अकालपुरख का दिल से धन्यवाद किया और बच्चों को बाहों में समेट लिया। काफी देर तक बच्चे दादी के आलिँगन में प्यार का आनन्द लेते रहे। दादी ने आँखें खोलीं कलाई ढीली की, तब तक सिपाही जा चुके थे।
अब माता गुजरी जी आहिस्ता-आहिस्ता पोतों से कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में पूछने लगी। बच्चें भी दादी माँ को कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में बताने लगे। उन्होंने सुच्चानन्द की ओर से जलती पर तेल डालने के बारे भी दादी माँ को बताया। दादी माँ ने कहा, ‘‘शाबाश बच्चों ! तुमने अपने पिता तथा दादा की शान को कायम रखा है। कल फिर तुम्हें कचहरी में और अधिक लालच तथा डरावे दिये जाएँगे। देखना,आज की भाँति धर्म को जान से भी अधिक प्यारा समझना और ऐसे ही दृढ़ रहना। अगर कष्ट दिए जाएँ तो अकालपुरख का ध्यान करते हुए श्री गुरू तेग बहादुर साहिब और श्री गुरू अरजन देव साहिब जी की शहादत को सामने लाने का प्रयास करना।
भाई मतीदास, भाई सतीदास और भाई दयाला ने भी गुरू चरणों का ध्यान करते हुए मुस्कराते-मुस्कराते तन चिरवा लिया, पानी में उबलवा लिया और रूईं में लिपटवाकर जलकर शहीदी पायी थी। तुम्हारे विदा होने पर मैं भी तुम्हारे सिखी-सिदक की परिपक्वता के लिए गुरू चरणों में और अकालपुरख (परमात्मा) के समक्ष सिमरन में जुड़कर अरदास करती रहुँगी। यह कहते-कहते दादी माँ बच्चों को अपनी आलिँगन में लेकर सो गईं।
अगले दिन भी कचहरी में पहले जैसे ही सब कुछ हुआ, और भी ज्यादा लालच दिये गये तथा धमकाया गया। बच्चे धर्म से नहीं डोले। नवाब ने लालच देकर बच्चों को धर्म से फुसलाने का प्रयत्न किया। उसने कहा कि यदि वे इस्लाम स्वीकार कर लें तो उन्हें जागीरें दी जाएँगी। बड़े होकर शाही खानदान की शहज़ादियों के साथ विवाह कर दिया जाएगा। शाही खजाने के मुँह उनके लिए खोल दिए जाएँगे। नवाब का ख्याल था कि भोली-भाली सूरत वाले ये बच्चे लालच में आ जाएँगे। पर वे तो गुरू गोबिन्द सिंह के बच्चे थे, मामूली इन्सान के नहीं। उन्होंने किसी शर्त अथवा लालच में ना आकर इस्लाम स्वीकार करने से एकदम इन्कार कर दिया।
अब नवाब धमकियों पर उतर आया। गुस्से से लाल पीला होकर कहने लगा: ‘यदि इस्लाम कबूल न किया तो मौत के घाट उतार दिए जाओगे। फाँसी चढ़ा दूँगा। जिन्दा दीवार में चिनवा दूँगा। बोलो, क्या मन्जूर है– मौत या इस्लाम ?
ज़ोरावर सिंह ने हल्की सी मुस्कराहट होठों पर लाते हुए अपने भाई से कहा: ‘भाई,हमारे शहीद होने का अवसर आ गया है। ठीक उसी तरह जैसे हमारे दादा गुरू तेग बहादर साहिब जी ने दिल्ली के चाँदनी चौक में शीश देकर शहीदी पाई थी। तुम्हारा क्या ख्याल है ?
फतेह सिंह ने उत्तर दिया: ‘भाई जी, हमारे दादा जी ने शीश दिया पर धर्म नहीं छोड़ा। उनका उदाहरण हमारे सामने है। हमने खण्डे बाटे का अमृत पान किया हुआ है। हमें मृत्यु से क्या भय ? मेरा तो विचार है कि हम भी अपना शीश धर्म के लिए देकर मुगलों पर प्रभु के कहर की लानत डालें।
ज़ोरावर सिंह ने कहा: ‘‘हम गुरू गोबिन्द सिंह जैसी महान हस्ती के पुत्र हैं। जैसे हमारे दादा गुरू तेग बहादर साहिब जी शहीद हो चुके हैं। वैसे ही हम अपने खानदान की परम्परा को बनाए रखेंगे। हमारे खानदान की रीति है, ‘सिर जावे ताँ जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।’ हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फाँसी के तख्ते को चूमेंगे।’
जोश में आकर फतेह सिंह ने कहा: ‘सुन रे सूबेदार ! हम तेरे दीन को ठुकराते हैं। अपना धर्म नहीं छोडंगे। अरे मूर्ख, तू हमें दुनियाँ का लालच क्या देता है ? हम तेरे झाँसे में आने वाले नहीं। हमारे दादा जी को मारकर मुगलों ने एक अग्नि प्रज्वलित कर दी है, जिसमें वे स्वयँ भस्म होकर रहेंगे। हमारी मृत्यु इस अग्नि को हवा देकर ज्वाला बना देगी।
सुच्चानन्द ने नवाब को परामर्श दिया कि बच्चों की परीक्षा ली जानी चाहिए। अतः उनको अनेकों भान्ति भान्ति के खिलौने दिये गये। बच्चों ने उन खिलौनों में से धनुष बाण, तलवार इत्यादि अस्त्र-शस्त्र रूप वाले खिलौने चुन लिए। जब उन से पूछा गया कि इससे आप क्या करोगे तो उनका उत्तर था युद्ध अभ्यास करेंगे। वजीर ख़ान ने चढ़दी कला के विचार सुनकर काज़ी के मन में यह बात बैठ गई कि सुच्चानन्द ठीक ही कहता है कि साँप के बच्चे साँप ही होते हैं। वजीर ख़ान ने काज़ी से परामर्श करने के पश्चात उसको दोबारा फतवा देने को कहा।
इस बार काज़ी ने कहा: बच्चे कसूरवार हैं क्योंकि बगावत पर तुले हुए हैं। इनको किले की दीवारों में चिनकर कत्ल कर देना चाहिए।
कचहरी में बैठे मालेरकोटले के नवाब शेर मुहम्मद ने कहा: नवाब साहब इन बच्चों ने कोई कसूर नहीं किया इनके पिता के कसूर की सज़ा इन्हें नहीं मिलनी चाहिए। काज़ी बोला: शेर मुहम्मद ! इस्लामी शरह को मैं तुमसे बेहतर जानता हूँ। मैंने शरह के अनुसार ही सजा सुना दी है।
तीसरे दिन बच्चों को कचहरी भेजते समय दादी माँ की आँखों के सामने होने वाले काण्ड की तस्वीर बनती जा रही थी। दादी माँ को निश्चय था कि आज का बिछोड़ा बच्चों से सदा के लिए बिछोड़ा बन जाएगा। परन्तु यकीन था माता गुजरी जी को कि मेरे मासूम पोते आज जीवन कुर्बान करके भी धर्म की रक्षा करेंगे। मासूम पोतों को जी भरकर प्यार किया, माथा चूमा, पीठ थपथपाई और विदा किया, बावर्दी सिपाहियों के साथ, होनी से निपटने के लिये।
दादी माँ टिकटिकी लगाकर तब तक सुन्दर बच्चों की ओर देखती रही जब तक वे आँखों से ओझल न हो गये। माता गुजरी जी पोतों को सिपाहियों के साथ भेजकर वापिस ठंडे बुरज में गुरू चरणों में ध्यान लगाकर वाहिगुरू के दर पर प्रार्थना करने लगी, हे अकालपुरख ! (परमात्मा) बच्चों के सिक्खी-सिदक को कायम रखने में सहाई होना। दाता ! धीरज और बल देना इन मासूम गुरू पुत्रों को ताकि बच्चे कष्टों का सामना बहादुरी से कर सकें।
तीसरे दिन साहिबज़ादों को कचहरी में लाकर डराया धमकाया गया। उनसे कहा गया कि यदि वे इस्लाम अपना लें तो उनका कसूर माफ किया जा सकता है और उन्हें शहजादों जैसी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं। किन्तु साहिबज़ादे अपने निश्चय पर अटल रहे। उनकी दृढ़ता थी कि सिक्खी की शान केशों श्वासों के सँग निभानी हैं। उनकी दृढ़ता को देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ।
अकस्मात दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग अपने एक मुकद्दमें के सम्बन्ध में सरहिन्द आये। उन्होंने अपने मुकद्दमें में माफी का वायदा लेकर साहिबज़ादों को शहीद करना मान लिया। बच्चों को उनके हवाले कर दिया गया। उन्होंने जोरावर सिंह व फतेह सिंह को किले की नींव में खड़ा करके उनके आसपास दीवार चिनवानी प्रारम्भ कर दी।
बनते-बनते दीवार जब फतेह सिंह के सिर के निकट आ गई तो जोरावर सिंह दुःखी दिखने लगे। काज़ियों ने सोचा शायद वे घबरा गए हैं और अब धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हो जायेंगे। उनसे दुःखी होने का कारण पूछा गया तो जोरावर बोले मृत्यु भय तो मुझे बिल्कुल नहीं। मैं तो सोचकर उदास हूँ कि मैं बड़ा हूं, फतेह सिंह छोटा हैं। दुनियाँ में मैं पहले आया था। इसलिए यहाँ से जाने का भी पहला अधिकार मेरा है। फतेह सिंह को धर्म पर बलिदान हो जाने का सुअवसर मुझ से पहले मिल रहा है।
छोटे भाई फतेह सिंह ने गुरूवाणी की पँक्ति कहकर दो वर्ष बड़े भाई को साँत्वना दी:
चिंता ताकि कीजिए, जो अनहोनी होइ ।।
इह मारगि सँसार में, नानक थिर नहि कोइ ।।
और धर्म पर दृढ़ बने रहने का सँकल्प दोहराया। बच्चों ने अपना ध्यान गुरू चरणों में जोड़ा और गुरूबाणी का पाठ करने लगे। पास में खड़े काज़ी ने कहा– अभी भी मुसलमान बन जाओ, छोड़ दिये जाओगे। बच्चों ने काज़ी की बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया अपितु उन्होंने अपना मन प्रभु से जोड़े रखा।
दीवार फतेह सिंह के गले तक पहुँच गई काज़ी के सँकेत से एक जल्लाद ने फतेह सिंह तथा उस के बड़े भाई जोरावर सिंह का शीश तलवार के एक वार से कलम कर दिया। इस प्रकार श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी के सुपुत्रों ने अल्प आयु मे ही शहादत प्राप्त की।
माता गुजरी जी बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा में गुम्बद की मीनार पर खड़ी होकर राह निहार रही थीं। माता गूजरी जी भी छोटे साहिबजादों जी की शहीदी का समाचार सुनकर ठँडे बूर्ज में ही शरीर त्याग गईं यानि शहीदी प्राप्त की।
स्थानीय निवासी जौहरी टोडरमल को जब गुरू साहिब के बच्चों को यातनाएँ देकर कत्ल करने के हुक्म के विषय में ज्ञात हुआ तो वह अपना समस्त धन लेकर बच्चों को छुड़वाने के विचार से कचहरी पहुँचा किन्तु उस समय बच्चों को शहीद किया जा चुका था। उसने नवाब से अँत्येष्टि क्रिया के लिए बच्चों के शव माँगे।
वज़ीर ख़ान ने कहा: यदि तुम इस कार्य के लिए भूमि, स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके खरीद सकते हो तो तुम्हें शव दिये जा सकते हैं। टोडरमल ने अपना समस्त धन भूमि पर बिछाकर एक चारपाई जितनी भूमि खरीद ली और तीनों शवों की एक साथ अँत्येष्टि कर दी।
यह सारा किस्सा गुरू के सिक्खों ने गुरू गोबिन्द सिंह को नूरी माही द्वारा सुनाया गया तो उस समय अपने हाथ में पकड़े हुए तीर की नोंक के साथ एक छोटे से पौधे को जड़ से उखाड़ते हुए उन्होंने कहा– जैसे मैंने यह पौध जड़ से उखाड़ा है, ऐसे ही तुरकों की जड़ें भी उखाड़ी जाएँगी।
फिर गुरू साहिब ने सिक्खों से पूछा: ‘मलेरकोटले के नवाब के अतिरिक्त किसी और ने मेरे बच्चों के पक्ष में आवाज़ उठाई थी ?
सिक्खों ने सिर हिलाकर नकारात्मक उत्तर दिया।
इस पर गुरू साहिब ने फिर कहा: ‘तुरकों की जड़ें उखड़ने के बाद भी मलेरकोटले के नवाब की जड़ें कायम रहेंगी, पर मेरे धर्म सिपाही एक दिन सरहिन्द की ईंट से ईंट बजा देंगे’। यह घटना 14 पौष तदानुसार 27 दिसम्बर 1705 ईस्वी में घटित हुई।
नोट: मलेरकोटले की जड़ें आज तक कायम हैं। बन्दा बहादुर ने 1710 में सचमुच "सरहिन्द शहर" की ईंट से ईंट बजा दी थी।
1. जिस कुल जाति कौम के बच्चे यूं करते हैं बलिदान।
उस का वर्तमान कुछ भी हो परन्तु भविष्य है महान। मैथिली शरण गुप्त
2. यह गर्दन कट तो सकती है मगर झुक नहीं सकती।
कभी चमकौर बोलेगा कभी सरहिन्द की दीवार बोलेगी।। सरदार पँछी

Monday, 26 December 2016

महाराणा प्रताप के बारे में कुछ रोचक जानकारी:-


😎1... महाराणा प्रताप एक ही झटके में घोड़े समेत दुश्मन सैनिक को काट डालते थे।
😎2.... जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थे । तब उन्होने अपनी माँ से पूछा कि- हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आए ? तब माँ का जवाब मिला- ”उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना, जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना ।”
लेकिन बदकिस्मती से उनका वो दौरा रद्द हो गया था |
“बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘ किताब में आप यह बात पढ़ सकते हैं |
😎3.... महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलोग्राम था और कवच का वजन भी 80 किलोग्राम ही था|
कवच, भाला, ढाल, और हाथ में तलवार का वजन मिलाएं तो कुल वजन 207 किलो था।
😎4.... आज भी महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं |
😎5.... अकबर ने कहा था कि अगर राणा प्रताप मेरे सामने झुकते है, तो आधा हिंदुस्तान के वारिस वो होंगे, पर बादशाहत अकबर की ही रहेगी|
लेकिन महाराणा प्रताप ने किसी की भी अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया |
😎6.... हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की ओर से 85000 सैनिक युद्ध में सम्मिलित हुए |
😎7.... महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुआ है, जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है |
😎8.... महाराणा प्रताप ने जब महलों का त्याग किया तब उनके साथ लुहार जाति के हजारो लोगों ने भी घर छोड़ा और दिन रात राणा कि फौज के लिए तलवारें बनाईं | इसी
समाज को आज गुजरात मध्यप्रदेश और राजस्थान में गाढ़िया लोहार कहा जाता है|
मैं नमन करता हूँ ऐसे लोगो को |
😎9.... हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहाँ जमीनों में तलवारें पाई गई।
आखिरी बार तलवारों का जखीरा 1985 में हल्दी घाटी में मिला था |
😎10..... महाराणा प्रताप को शस्त्रास्त्र की शिक्षा "श्री जैमल मेड़तिया जी" ने दी थी, जो 8000 राजपूत वीरों को लेकर 60000 मुसलमानों से लड़े थे। उस युद्ध में 48000 मारे गए थे । जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे |
😎11.... महाराणा के देहांत पर अकबर भी रो पड़ा था |
😎12.... मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में
अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था । वो महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा बिना भेदभाव के उन के साथ रहते थे ।
आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत हैं, तो दूसरी तरफ भील |
😎13..... महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक महाराणा को 26 फीट का दरिया पार करने के बाद वीर गति को प्राप्त हुआ | उसकी एक टांग टूटने के बाद भी वह दरिया पार कर गया। जहाँ वो घायल हुआ वहां आज खोड़ी इमली नाम का पेड़ है, जहाँ पर चेतक की मृत्यु हुई वहाँ चेतक मंदिर है |
😎14..... राणा का घोड़ा चेतक भी बहुत ताकतवर था उसके
मुँह के आगे दुश्मन के हाथियों को भ्रमित करने के लिए हाथी की सूंड लगाई जाती थी । यह हेतक और चेतक नाम के दो घोड़े थे|
😎15..... मरने से पहले महाराणा प्रताप ने अपना खोया हुआ 85 % मेवाड फिर से जीत लिया था । सोने चांदी और महलो को छोड़कर वो 20 साल मेवाड़ के जंगलो में
घूमे ।
😎16.... महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो और लम्बाई 7’5” थी, दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला रखते थे हाथ में।
महाराणा प्रताप के हाथी
की कहानी:
मित्रो, आप सब ने महाराणा
प्रताप के घोड़े चेतक के बारे
में तो सुना ही होगा,
लेकिन उनका एक हाथी
भी था। जिसका नाम था रामप्रसाद। उसके बारे में आपको कुछ बाते बताता हुँ।
रामप्रसाद हाथी का उल्लेख
अल- बदायुनी, जो मुगलों
की ओर से हल्दीघाटी के
युद्ध में लड़ा था ने अपने एक ग्रन्थ में किया है।
वो लिखता है की- जब महाराणा प्रताप पर अकबर ने चढाई की थी, तब उसने दो चीजो को ही बंदी बनाने की मांग की थी ।
एक तो खुद महाराणा
और दूसरा उनका हाथी
रामप्रसाद।
आगे अल बदायुनी लिखता है
की- वो हाथी इतना समझदार व ताकतवर था की उसने हल्दीघाटी के युद्ध में अकेले ही अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था ।
वो आगे लिखता है कि-
उस हाथी को पकड़ने के लिए
हमने 7 बड़े हाथियों का एक
चक्रव्यूह बनाया और उन पर
14 महावतो को बिठाया, तब कहीं जाकर उसे बंदी बना पाये।
अब सुनिए एक भारतीय
जानवर की स्वामी भक्ति।
उस हाथी को अकबर के समक्ष पेश किया गया ।
जहा अकबर ने उसका नाम पीरप्रसाद रखा।
रामप्रसाद को मुगलों ने गन्ने
और पानी दिया।
पर उस स्वामिभक्त हाथी ने
18 दिन तक मुगलों का न
तो दाना खाया और न ही
पानी पिया और वो शहीद
हो गया।
तब अकबर ने कहा था कि-
जिसके हाथी को मैं अपने सामने नहीं झुका पाया,
 उस महाराणा प्रताप को क्या झुका पाउँगा.?
इसलिए मित्रो हमेशा अपने
भारतीय होने पे गर्व करो।
पढ़कर सीना चौड़ा हुआ हो
तो शेयर कर देना।

माँ ने एक शाम दिनभर की लम्बी थकान एवं काम के बाद जब डिनर बनाया

माँ ने एक शाम दिनभर की लम्बी थकान एवं काम के बाद जब डिनर बनाया
तो उन्होंने पापा के सामने एक प्लेट सब्जी और एक जली हुई रोटी परोसी।
मूझे लग रहा था कि इस जली हुई रोटी पर पापा कुछ कहेंगे, परन्तु पापा ने उस रोटी को आराम से खा लिया ।
हांलांकि मैंने माँ को पापा से उस जली रोटी के लिए "साॅरी" बोलते हुए जरूर सुना था।
और मैं ये कभी नहीं भूल सकता जो पापा ने कहा: "मूझे जली हुई कड़क रोटी बेहद पसंद हैं।"
देर रात को मैने पापा से पुछा, क्या उन्हें सचमुच जली रोटी पसंद हैं?
उन्होंने कहा- "तुम्हारी माँ ने आज दिनभर ढ़ेर सारा काम किया, ओर वो सचमुच बहुत थकी हुई थी।
और वैसे भी एक जली रोटी किसी को ठेस नहीं पहुंचाती परन्तु कठोर-कटू शब्द जरूर पहुंचाते हैं।
तुम्हें पता है बेटा - "जिंदगी भरी पड़ी है अपूर्ण चीजों से...अपूर्ण लोगों से... कमियों से...दोषों से...
मैं स्वयं सर्वश्रेष्ठ नहीं, साधारण हूँ
और शायद ही किसी काम में ठीक हूँ।
मैंने इतने सालों में सीखा है कि- "एक दूसरे की गलतियों को स्वीकार करना..
नजरंदाज करना..
आपसी संबंधों को सेलिब्रेट करना।"
मित्रों, जिदंगी बहुत छोटी है..
उसे हर सुबह-शाम दु:ख...पछतावे...
खेद में बर्बाद न करें।
जो लोग तुमसे अच्छा व्यवहार करते हैं, उन्हें प्यार करों और जो नहीं करते
उनके लिए दया सहानुभूति रखो
पसंद आये तो कृपया अपने मित्रों से
साँझा अवश्य कीजियेगा