Thursday, 28 July 2016

महाराणा मोकल

**जय श्री राम** मित्रो और गुरुजनों को सादर नमन अक्सर लोग मुझसे कहते हैं मैं इतिहास पे सिर्फ पोस्ट क्यों करती हूँ मैं इतिहास पे सिर्फ पोस्ट इसलिए करती हूँ हमारे ग़ुलाम हो चुके मानसिकता को बदलना हैं आनेवाली नस्ल दूषित इतिहास के बदले सच्चाई पढ़े की भारत ने कभी ग़ुलामी की ही नहीं मकॉलय ने अंग्रेज़ गवर्नर ह्यूगो को पत्र लिखते समय लिखे थे भारत की रीढ़ को तोडना हैं तो हिन्दुओं की गौरवशाली इतिहास को खत्म कर के इनको हमेशा के लिए इनकी नज़रों में लाचार हारा हुआ ग़ुलाम बनाना ज़रूरी हैं और इसी षड्यंत्र के तहत इतिहास में ग़ुलाम कर दिया गया हकीकत में जो न हो पाया वो इतिहास में कर दिया गया, दूषित कर दिया हमें गोरे अंग्रेजों से छुटकारा मिलने के बाद काले अंग्रेजों ने ग़ुलामी की परम्परा आगे रखते हुए भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद ने सिकंदर , अकबर लूटेरों को महान बता दिया और इस धरती के पूत महाराणा प्रताप , शिवाजी , लचित बोरफुकन, ललितादित्य मुक्तापिड़ और भी कई पुरखों के इतिहास गबकर दिए गए जिसे आज हम ढूंढ ढूंढ के आपके सामने लाते हैं , महाराणा मोकल के इतिहास
राणा लाखा की मृत्यु होने पर उसका 12 वर्षीय पुत्र मोकल मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म रणमल की बहन हंसाबाई की कोख से हुआ था। मोकल की अल्पायु के कारण स्वर्गीय महाराणा लाखा का बड़ा पुत्र चूण्डा उसका अभिभावक बना रणमल्ल - ये मंडोवर के राव चूंडा के बड़े पुत्र थे | राव चूंडा ने किसी कारण से नाराज़ होकर रणमल्ल को मंडोवर से निकाल दिया | रणमल्ल ५०० सवारों सहित चित्तौड़ आए और यहीं रहने लगे | महाराणा लाखा के बड़े पुत्र कुंवर चूंडा ने जिद करके महाराणा को रणमल्ल की बहिन हंसाबाई से विवाह करने के लिए राजी किया ,कुंवर चूंडा ने प्रतिज्ञा की कि "हंसाबाई जी और महाराणा का जो भी पहला पुत्र होगा, वही मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठेगा और मैं उसकी सेवा में रहूंगा" इस प्रतिज्ञा के कारण कुंवर चूंडा को "मेवाड़ का भीष्म पितामह" भी कहा जाता है विवाह के १३ माह बाद महाराणा लाखा व हंसाबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जो मोकल नाम से प्रसिद्ध हुए | कुंवर मोकल महाराणा लाखा के ८वें पुत्र थे , १४०६-०७ ई. में महाराणा लाखा का देहान्त हुआ (महाराणा लाखा के देहान्त का वर्ष १३९७ ई. बताना कर्नल जेम्स टॉड की गलती है व १४२० ई. बताना कवि लोगों की गलती है) | कुंवर चूंडा ने अपने छोटे भाई मोकल का हाथ पकड़कर उन्हें मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की, रानी हंसाबाई जब सती होने जा रही थीं, तब कुंवर चूंडा ने उनको रोक लिया और कहा कि आपको बाईजीराज बनकर रहना चाहिए (राज करने वाले शासक की माता को बाईजीराज कहते हैं) | १४०७ ई. में महाराणा मोकल का राज्याभिषेक हुआ ,महाराणा मोकल की उम्र कम होने के कारण राज्य का सारा काम कुंवर चूंडा की देख-रेख में होता देख कुछ सर्दारों ने महाराणा और उनकी माता हंसाबाई के कान भरने शुरु किये ,बाईजीराज हंसाबाई ने कुंवर चूंडा से कहा कि आप मेवाड़ छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जावें, तो ठीक रहेगा ,कुंवर चूंडा अपने सभी छोटे भाईयों समेत मेवाड़ से चले गए, सिवाय राघवदास के | राघवदास कुंवर चूंडा के छोटे भाई व महाराणा लाखा के दूसरे बड़े पुत्र थे | कुंवर चूंडा ने राघवदास को महाराणा मोकल का संरक्षक नियुक्त किया | हालांकि महाराणा मोकल के दिमाग पर केवल उनके मामा रणमल्ल की बात ही असर करती थी | राज्य का सारा काम रणमल्ल ही करता था | १४१० ई. में मंडोवर के राव चूंडा का देहान्त हुआ और उत्तराधिकार संघर्ष शुरु हुआ, राव चूंडा के बड़े बेटे रणमल्ल ने कई राठौड़ साथियों और महाराणा मोकल की मेवाड़ी फौज लेकर मंडोवर पर अधिकार किया ,इस लड़ाई में रणमल्ल के भतीजे नरबद की एक आँख फूट गई | महाराणा मोकल उसे चित्तौड़ ले आए और कायलाणा का पट्टा जागीर में दिया |
नागौर के हाकिम फीरोज़ खां ने ६०,००० सैनिकों की सेना लेकर मेवाड़ पर चढाई की महाराणा मोकल भी सामना करने ५०६०मेवाड़ी फौज के साथ निकले और गाँव जोताई के चौगान में पड़ाव डाला रात के वक्त फीरोज खां ने हमला कर दिया | महाराणा को एेसी धोखेबाजी की बिल्कुल भनक तक न थी | महाराणा का घोड़ा मारा गया | डोडिया धवल के पोते सबलसिंह ने अपना घोड़ा महाराणा को दिया और खुद वीरगति को प्राप्त हुए | महाराणा मोकल पराजित होकर चित्तौड़ आ गए इस युद्ध में २,००० मेवाड़ी सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए फीरोज खां कुल मेवाड़ को लूटते हुए मालवा की तरफ निकला |
महाराणा मोकल इस पराजय का जवाब देना जरुरी समझकर १२,००० मेवाड़ी फौज के साथ निकले फीरोज़ खां भी सादड़ी और प्रतापगढ़ के पहाड़ों की तरफ आया और जावर में पड़ाव डाला , जावर में दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें फीरोज़ खां बुरी तरह पराजित होकर भाग निकला (चित्तौड़ के समिद्धेश्वर महादेव मन्दिर पर इस विजय की प्रशस्ति है), महाराणा मोकल ने जहांजपुर में दूसरी बार फीरोज़ खां को शिकस्त दी(महाराणा की इस विजय का उल्लेख एकलिंग जी के मन्दिर के दक्षिणद्वार की प्रशस्ति में है) १‍४३२ ई.
म्लेच्छ अहमदशाह ने १,१‍२,००० ‍बड़ी फौज के साथ मेवाड़ पर चढाई की उसने डूंगरपुर, देलवाड़ा, केलवाड़ा वगैरह मेवाड़ी इलाके लूट लिए १‍४३३ ई. महाराणा मोकल भी मेवाड़ी फौज के साथ चित्तौड़ से निकले महाराणा , केलवाड़ा में भयंकर युद्ध हुआ मेवाड़ी शेरो की संख्या ९-१० हज़ार के बीच थी और मलेचो की संख्या लाखों में हल्दीघाटी से भी बड़े बड़े २८ युद्ध हुए मेवाड़ और पठान , मुग़ल , अस्सीरिया , हुण के साथ जिसमे मुट्ठी भर मेवाड़ी सेना भाड़ी पड़े हैं, अहमदशाह के साथ युद्ध का निर्णय महाराणा मोकल की हार निश्चित थी क्यों की धूर्त मलेच्छो की आदत थी धूर्तता करना महाराणा मोकल निरन्तर युद्ध लड़ रहे थे मेवार की सेना सञ्चालन के लिए आर्थिक संकट से भी गुजर रहे थे इसलिए केलवाड़ा के युद्ध में तोपो का उपयोग करने में असमर्थ थे महाराणा , इन सभी बातो का फ़ायदा उठाते हुए अहमदशाह ने १६ तोप और १२,००० घुड़सवार सैनिक और १,०००,०० पैदल सैनिक के साथ आक्रमण कर दिया था मेवार पर, परंतु मेवार की धरती हमेसा शेर जनने हैं राणा मोकल के सेना में राव विक्रम सिंह के साथ उनके १२ वर्षीय पुत्र राव शेर सिंह भी थे जैसा नाम वैसा काम किया जिस तोप के सहारे मलेच्छ महाराणा मोकल को हरानेवाले थे उन तोपों के अस्लागड़ में रात के समय मशाल हाथ में लिए घुस गये और पूरा असलागड़ो को जला डाला और राव शेर की इस बलिदानी के साथ केलवाड़ा की युद्ध का निर्णय बदल गया अहमद शाह के सेना पर मुट्ठी भर मेवाड़ी रणबांकुरे भाड़ी पड़ गया , जैसे की इन मलेच्छो की आदात रेह चुकी हैं मृत्यु को सामने देख महाराणा मोकल के सामने घुटने टेक दिए , और क़ुरान की कसम खाते हुए की दोबारा मेवार की धरती पे आक्रमण नहीं करेगा , ना केवल मेवार छोड़ा अपितु गुजरात की पावनभूमि तक को छोड़ कर भाग गया था ।
परंतु जैसे की मलेच्छो की फितरत मोहम्मद घोड़ी की कहानी फिर दोहराया और मेवार पर रना कुम्भा जब गद्दी पर विराजमान हुआ मेवार की धरती पर अहमद शाह ने फिर आक्रमण किया पर तब फ़िर से हार का सामना किया अहमद शाह ने इस बारे में अगले भाग में बताएंगे ।
निर्माण कार्य - महाराणा मोकल ने चित्तौड़ में द्वारिकानाथ व समिद्धेश्वर मन्दिर बनवाया | कैलाशपुरी में एकलिंग जी के मन्दिर के चारों तरफ की कोट बनवाई | यहीं अपने छोटे भाई बाघसिंह के नाम पर बाघेला तालाब भी बनवाया | दान व भेंट - महाराणा मोकल ने पुष्कर तीर्थ पर स्वर्ण का तुलादान किया | महाराणा ने वांघनवाड़ा व रामा गाँव एकलिंग जी के भेंट किए | म्लेच्छ अहमदशाह को महाराणा मोकल से परास्त होना परा...
* महाराणा मोकल के 7 पुत्र हुए -
1) महाराणा कुम्भा
2) कुंवर क्षेमकरण - इन्हें सादड़ी की जागीर मिली
3) कुंवर शिवा
4) कुंवर सत्ता
5) कुंवर नाथसिंह
6) कुंवर वीरमदेव
7) कुंवर राजधर
* बाईसा लालबाई - ये महाराणा मोकल की पुत्री थीं | इनका विवाह गागरोन के खींची राव अचलसिंह से हुआ |
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जय एकलिंग
MANISHA SINGH

Thursday, 21 July 2016

‪‎तक्षक‬


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क्या आप उन कुछ बदकिस्मत लोगों में से हैं जिन्होंने यह बेहतरीन लेख नहीं पढा? क्या आपको चेक करना है कि आपके खुन में अब भी ऊबाल है या वह पानी बन चुका है?
तो थोड़ी लंबी है पर निवेदन है कि जरूर पढीये यह…
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प्राचीन भारत का पश्चिमोत्तर सीमांत!मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीवोँ का आवास था। यहां के वायुमण्डल में अब भी कासिम की सेना का अत्याचार पसरा था और जैसे बलत्कृता कुमारियों और सरकटे युवाओं का चीत्कार गूंजता था।कासिम ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, अस्तु अब इस क्षेत्र में हिन्दू प्रजा अत्यल्प ही थी। संहार के भय से इस्लाम स्वीकार कर चुके कुछ निरीह परिवार यत्र तत्र दिखाई दे जाते थे, पर कहीं उल्लास का कोई चिन्ह नही था। कुल मिला कर यह एक शमशान था।
इस कथा का इस शमशान से मात्र इतना सम्बंध है, कि इसी शमशान में जन्मा एक बालक जो कासिम के अभियान के समय मात्र आठ वर्ष का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था तक्षक। मुल्तान विजय के बाद कासिम के सम्प्रदायोन्मत्त आतंकवादियों ने गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोची गयीं, और हजारों अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं।लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। अरब ने पहली बार भारत को अपना धर्म दिखया था, और भारत ने पहली बार मानवता की हत्या देखी थी।
तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति पा चुके थे। लूटती अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद काटी जा रही गाय की तरह बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया। आठ वर्ष का बालक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भागा..............
पचीस वर्ष बीत गए। तब का अष्टवर्षीय तक्षक अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी, उसकी आँखे सदैव अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था।
कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
आज महाराज की सभा लगी थी। कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है, और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी।नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी सेनानायकों का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे। आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला- महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।
- महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक।
तक्षक ने कहा- मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।
- पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर,
- राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का सौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था।सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा- लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा- आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
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साभार- ‪#‎Make_In_India‬